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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पीठबन्धः उपाध्याय हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी अपनी शक्तिके द्वारा जो मोक्षकी साधना करते हैं, वे सर्वसाधु हैं। साधुके पहले 'सर्व' विशेषण लगानेसे ग्रन्थकारका अभिप्राय यह है कि जिन्होंने आज ही समस्त पापमयी प्रवृत्तियोंके त्यागरूप सामायिक संयमको धारण किया है, वे भी नमस्कार किये जानेके योग्य हैं । अथवा सर्व शब्द मध्यमें होनेके कारण पाँचोंके साथ लगाया जाता है। अर्थात् सब' तीर्थंकरोंको, सब सिद्धोंको, सब आचार्योंको, सब उपाध्यायोंको और सब साधुओंको नमस्कार करके इत्यादि। इस प्रकार इष्ट देवताके उपदेशसे अरहन्त और सिद्धोंको तथा निकट उपकारी होनेके कारण आचार्य वगैरहको भी नमस्कार करके कारिकाके 'प्रशमरतिस्थैर्यार्थम्' इत्यादि उत्तरार्द्धसे ग्रन्थके नामकी सार्थकता तथा प्रयोजनको बतलाते हुए प्रन्थकार ग्रन्थ बनानेकी प्रतिज्ञा करते हैं। ___ अरक्तद्विष्टता प्रशमो वैराग्यामिति । वक्ष्यति उपरि 'माध्यस्थ्यं वैराग्यम्' इत्यत्र । तत्र वैराग्यलक्षणे प्रशमे रतिः शक्तिः प्रीतिः तस्यां स्थैर्य निश्चलता प्रशमरतिस्थैर्यम् । अर्थशब्दः प्रयोजनवचनः । 'प्रशमरती कथं नाम स्थिरो समक्षर्भव्यःस्यात् ' इत्यतो वक्ष्ये प्रकरणम् । तच्च जिनशासनादेव वक्ष्यामि, अन्यत्र प्रशमाभावात् । यतः सर्वाश्रवनिरोधैकरसं हि जैनं शासनम् । न चान्यदेवंविधमस्ति । प्रशमकारि प्रवचनं शासन द्वादशाङ्गमाचारादिदृष्टिवादपर्यन्तम्, तच्च रत्नाकरवदनेकाश्चर्यनिधानम्, तस्मात् किञ्चिद् मनाक् वक्ष्ये । समस्ताभिधाने यद्यपि शक्ति. र्नास्ति, तथापि ग्रहणधारणावधारणपरिदुर्बलानां भव्यानां स्वल्पोऽपि प्रशमामृतबिन्दुहृदयेषु पातितो महान्तमुपकारं प्रसूते उपकर्तुश्च भव्योपकारः स्वपरहितप्रतिविशिष्टफलदायी जायत इति तदाह-'वक्ष्ये जिनशासनात् किञ्चित् ' ॥२॥ राग और द्वेषके अभावको प्रशम कहते हैं। इसीका नाम वैराग्य है, जैसा कि ग्रन्थकार 'माध्यस्थ्यं वैराग्यम्' इत्यादि कारिकासे आगे बतलावेंगे। उस वैराग्य रूप प्रशममें जो रति अर्थात् प्रीति, उसमें जो निश्चलता अर्थात् वैराग्यमें प्रीतिका स्थिर रहना सो 'प्रशमरतिस्थैर्यम् ' है। तथा 'अर्थ' से अभिप्राय प्रयोजनका है। जिससे ग्रन्थकारका अभिप्राय यह है कि 'प्रशमरति' में वैराग्यके प्रेम में-मुमुक्षु भव्य जीव किस प्रकार स्थिर हों, इसी प्रयोजनसे मैं इस ग्रन्थको कहूँगा । तथा जो कुछ कहूँगा वह जिनशासनके आधारसे ही कहूँगा; क्योंकि अन्य धर्मों में प्रशमका अभाव है। जिनशासनका यदि कोई एक रस है तो वह सब प्रकारके आस्रवोंका रोकना ही है। किन्तु अन्य मतोंमें यह बात नहीं है। आचाराङ्गसे लेकर दृष्टिवादपर्यन्त समस्त द्वादशाङ्गरूप प्रवचन प्रशम-वैराग्यको करनेवाला है तथा रत्नाकर-समुद्रकी तरह अनेक अचरजभरी बातोंका आकर-खानि है । उससे लेकर कुछ १ सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचराईदादिदेवताप्रणमनार्थम् ।" [पाँचों परमेष्ठियोंको नमस्कार करनेमें इस णमोकार मंत्रमें जो 'सर्व' और 'लोक' पद हैं, वे अन्तदीपक हैं। अतः सम्पूर्ण क्षेत्र में रहनेवाले त्रिकालवी अरिहन्त आदि देवताओंको नमस्कार करनेके लिए उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मक पदके साथ जोड़ लेना चाहिए । ] धवला टीका, प्रथमखण्ड, पृ० सं०५२ २करणाविकरणा-प०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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