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________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [नवमोऽधिकारः, धर्मः अविसंवादनयोगः कायमनोवागजिह्मता चैव । सत्यं चतुर्विधं तच जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ॥ १७४॥ टीका-विसंवादनमन्यथास्थितस्यान्यथा भाषणम्, गामश्वम् अश्वं वा गामिति भाषते । पिशुनो वाऽन्यथा चान्यथा च व्युद्ग्राह्य प्रीतिच्छेदनं करोति विसंवादयति । विसंवादनेन योगः सम्बन्धः, न विसंवादनयोगोऽविसंवादनयोगः । सत्यं यथा दृश्यमानवस्तु-- भाषणम् । कायेनाजिह्मता जिह्मः कुटिलो मलीमसः, कायेनान्यवेषधारितया प्रतारयति, न जिह्मोऽजिह्मः द्वितीयः सत्यभेदः । मनसा वाऽजिह्मता सत्यम् , मनसा प्रागालोच्य भाषते वा, प्रायो न ताहगालोचयति जिह्मेन येन परः प्रतार्यते, एष तृतीयो भेदः। वागजिह्मता च सत्यम् जिह्मा वाक् सद्भुतनिह्नवा, असद्धृतोद्भावनं कटुकपरुषसावद्यादि चेति चतुर्थो भेदः। एतच्च जैनेन्द्र एव मते, नान्यत्र सत्यमिति ॥ १४ ॥ अर्थ-जैसा देखना वैसा कहना, काय, मन और वचनकी अकुटिलता, ये सत्यके चार भेद हैं । यह सब धर्म जिनेन्द्रदेवके मतमें ही कहा गया है। अन्य मतोंमें नहीं कहा गया। भावार्थ-अन्य वस्तुको अन्यरूपमें कहना, जैसे गायको घोड़ा कहना और घोड़को गाय कहना विसंवादन है । अथवा चुगलखोर आदमी झूठी बातें बनाकर किसीकी प्रीतिको नष्ट करता है, उसे भी विसंवादन कहते हैं। इस प्रकारके विसंवादनको न करना और जैसी बात हो वैसी कहना, यह सत्यका पहला भेद है। जिह्म कुटिलको कहते हैं, कुटिल आदमी झूठा वेष बनाकर शरीरसे दूसरोंको ठगता है । ऐसा न करना सत्यका दूसरा भेद है। मनमें कुटिलताका न होना भी सत्य है । सच्चा आदमी पहले मनमें विचार करता है। वह ऐसी बातें नहीं सोचता, जिससे दूसरोंको ठगा जासके। यह सत्यका तीसरा भेद हे। वचनमें कुटिलताका न होना भी सत्य है। सच्ची बातको छिपाना, झूठी बातको प्रकट करना, तथा कडुवा, कठोर और सावध वचन बोलना असत्य है । ऐसा न करना सत्य है। यह सत्यका चौथा भेद है। सत्यके ये चार भेद जिनशासनमें ही कहे गये हैं, क्योंकि अन्य मतोंमें कठोर आदि वचनोंको असत्य नहीं कहा गया है। तपः सम्प्रत्युच्यतेतपको कहते हैं: अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः। कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् ॥ १७५ ॥ टीका-तत्रानशनं चतुर्थभक्तादि षण्मासान्तम्, तथाऽपरं भक्तप्रत्याख्यानम् , इङ्गिनीमरणम् , पादोपगमनमिति । ऊनोदरता द्वात्रिंशतः कवलेभ्यो यथाशक्ति नूनयत्याहारं यावदष्टकवलाहार इति । वृत्तिर्वर्तनं भिक्षा तस्याः संक्षेपणं परिमितग्रहणं दत्तिभिर्भिक्षाभिश्च । रसत्यागः, रसाः क्षीरदधिनवनीतघृतगुडादिप्रभृतयो विकृतयस्तासां त्यागः । कायक्लेशः
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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