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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ मङ्गलाचरणम् मुमुक्षुभ्यः सत्त्वेभ्यः त एवंविधा जयन्ति सर्वान् अन्यतीर्थकृतोऽभिभूय त एव जयन्ति नान्ये । यथाह आचार्य सिद्धसेनः“ अन्येऽपि मोहविजयाय निपीड्य कक्षामभ्युत्थितास्त्वयि विरूढसमानमानाः । अप्राप्य ते तव गतिं कृपणावसानास्त्वामेव वीर शरणं ययुरुद्वहन्तः॥१॥" के पुनस्ते नाभेयाद्याः सिद्धार्थराजसूनुचरमाः ? इत्याह-'जिनाः ' इति । रागद्वेषजेतारो जिनाः । रागद्वेषौ वक्ष्यमाणौ मोहनीयकर्मप्रकृतेर्भदौ, तद्ग्रहणाच्च सकलमोहप्रकृतिभेदग्रहणम्, तजये च ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणि क्षयमुपयान्तीति । अतो घातिकर्मचतुष्टयक्षयात् केवलज्ञानभास्कराविर्भावः । अतो रागद्वेषग्रहणं सूचनमात्रमिति॥१॥ भाषाटीकाकारका मङ्गलाचरण सूरिः श्रीमदुमास्वाती, राजतां मे चिदम्बरे । सन्मागदर्शिका यस्य, मुमुक्षूणां सदुक्तयः ॥ दोहा-मङ्गलमय मङ्गलकरन, मङ्गल-सिद्धि-निधान । मेरे मन-मन्दिर बसो, उमास्वाति भगवान॥ इस प्रशमरति नामके प्रकरणके प्रारंभमें इसकी निर्विघ्न समाप्तिके लिए प्रन्थकार मङ्गलाचरण करते हैं: - अर्थनाभिरायके पुत्र श्रीवृषभदेवको आदि लेकर राजा सिद्धार्थके पुत्र श्रीवर्धमानस्वामी पर्यन्त दश प्रकार धर्मकी विधिक जाननेवाले चरमशरीरी चौबीस जिनदेव जयवन्त हैं। भावार्थ-श्रीवृषभदेव इस युगके प्रथम तीर्थकर हैं और श्रीवर्धमानस्वामी अन्तिम तीर्थकर हैं। सभी तीर्थकर चरमशरीरी होते हैं। तीर्थंकरके भवके बाद उनके संसारका. अन्त होनेके कारण वे अन्य शरीर धारण नहीं करते। तथा कर्मोंका अभाव होनेसे इन्द्रिय और प्राण भी उनके नहीं रहते । अतः उनके नये शरीरका अभाव हो जाता है। और शरीरका अभाव हो जानसे सांसारिक सुखसे मुक्त होकर एकान्तिक, आत्यन्तिक, निरतिशय और बाधारहित मुक्तिके सुखका अनुभवन करते हैं । वे तीर्थकर ५+९ +१०=२४ हैं। वे सभी क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश धर्मोंको जानकर मोक्षके इच्छुक भव्य जीवोंको उनका उपदेश देते हैं, अतः वे धर्मकी दस विधियोंके ज्ञाता कहे जाते हैं। तथा राग और द्वेषके जीतनेवाले होनेके कारण वे सभी जिन कहलाते हैं। राग और द्वेष मोहनीय कर्मके भेद हैं। उनके ग्रहणसे मोहनीयके सब भेदोंका ग्रहण समझना चाहिए। और मोहनीयको जीत लेनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म नष्ट हो जाते हैं। अतः चार घातिकमौके क्षय हो जानेसे केवलज्ञानरूपी सूर्य प्रकट हो जाता है। इस प्रकारके वे तीर्थकर अन्य मतोंके तीर्थंकरोंको परास्त करके जयवन्त होते हैं। क्योंकि अन्य तीर्थंकरोंमें ये सब गुण नहीं पाये जाते। जैसा कि आचार्य सिद्धसेनने कहा है: " भगवन् ! अन्य देव आपके उत्कर्षको सहन न करके मोह-विजयके लिए तैयार हुए; परन्तु वे १ द्वा० २ का० १०
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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