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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना भावार्थ-'आदि' पदसे वस्त्र और पात्र ग्रहण करनेमें जो विधि बतलाई गई है, उस विधिका ग्रहण किया गया है । ' यच्चान्यद् ' पदसे दण्डका ग्रहण किया है ) इन सब वस्तुओं का ग्रहण धर्म और शरीरकी रक्षाके निमित्तसे किया जाता है। शरीरकी रक्षा होनेपर ही धर्मकी रक्षा हो सकती है, क्योंकि धर्मानुष्ठानका भूल शरीर है। संयमके पालन करनेके लिए ही शरीरका पोषण किया जाता है। इसी लिए यद्यपि उत्सर्गरूपसे ग्रहण करने योग्य वस्तुके ग्रहणका ही विधान है, तथापि यदि अपवादरूपसे ग्रहण करने योग्य वस्तुका लाभ न हो तो अल्पदोषसे युक्त वस्तुके ग्रहण करनेका विधान किया है । मैथुनके सिवाय अन्य सभी विषयोंमें अपवाद है। इस प्रकार धर्मकी रक्षाके लिए ही यह सब कहा है। किन्तु यह परिग्रह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि साधुको उनमें ममत्व नहीं रहता और ममत्वको ही परिग्रह कहते हैं । एवमुक्ता निष्परिग्रहता, सैव च स्पष्टा पुनः क्रियतेउसी निष्परिग्रहताको फिर भी स्पष्ट करते हैं : कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः संविग्नसहायको विनीतात्मा । दोषमलिनेऽपि लोके प्रविहरति मुनिनिरुपलेपः ॥ १३९ ॥ टीका-कल्पनीयं कल्प्यम्-उद्गमादिशुद्धमाहारोपधिशय्यादि। उद्गमादिदुष्टंवाऽकल्पनीयम् । तस्य विधिः-विधानम्-'कल्पनीयेन शरीरधारणं कुर्यात् , असति अकल्पनीयेनाप्य सता कार्य यत्नवता प्रावचनेन मार्गेण इत्येष विधिः।' तं जानातीति कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः। संविग्न सहायकः संविग्नाः संसार भीरवो ज्ञानक्रिया युक्ताः एवं विधाः सहाया यस्य संविग्नसहायकः । असहायः सुसहायो वा । विनीतात्मेति-विशेषेण नीत आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारविनयवश्यतां स विनीतात्मा। एवंविधः साधुः दोषमलिनेऽपि लोके मूच्र्छामलिने पि मनुष्यलाके। रागद्वेषौ वा दोषः, ताभ्यामयं मलिनो दूषितः सर्वो लोकः । एवंविधलोकमध्यवर्त्यपि प्रकर्षेण विविधमनेकप्रकारं रजो हरति प्रविहरति मुनिः निरुपलेपः-रागद्वेषाभ्यामस्पृष्टः, सर्वधनविनाशकारिणा वा लोभेन मूर्छालक्षणेनाग्रस्तो निरुपलेप इति । कर्माबनन् पूर्वबद्धमोक्षणाय प्रवर्तत इति ।। १३९ ॥ अर्थ-जो कल्पनीय और अकल्पनीयकी विधिको जानता है, संसारसे भयभीत संयमी जन जिसके सहायक हैं, और जिसने अपनी आत्माको ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार विनयसे युक्त कर लिया है, वह साधु राग-द्वेषसे दूषित लोकमें भी राग-द्वेषसे अछूता रह कर विहार करता है। भावार्थ-उद्गमादिसे शुद्ध आहारादिकको कल्पनीय कहते हैं । और उद्गमादि दोषोंसे युक्त आहारादिकको अकल्पनीय कहते हैं । कल्पनीय वस्तुओंसे शरीरकी रक्षा करनी चाहिए। यदि कल्पनीय न मिलें तो अकल्पनीयसे भी रक्षण किया जा सकता है, इत्यादि विधि है । जो साधु इस विधिको जानता है, संसारभीर संयमी लोगोंकी गोष्टीमें रहता है तथा विनयी है, वह दोषोंसे भरे हुए इस लोकमें भी दोष १-मुक्तेन न्यायेन नि-प० । २-च पुनः स्पष्टीक्रियते प० । ३-दिविश,-प० । ४-कधा-फ०,०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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