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________________ भवन = भवनवासी देवों का निवास स्थान । मान = धर्मास्तिकाय आदि का अपना-अपना प्रमाण । योगान्तर= तीनों योगों के चिन्तन का पारस्परिक संक्रमण। लेश्या = आत्मा को कर्म से लिप्त करने वाली प्रवृत्तियाँ। कृष्ण और कापोत अशुभ एवं पीत, पद्म और शुक्ल शुभ लेश्याएं हैं । वाचना = विचार और स्मरण के लिए शिष्य को दिया गया सूत्र । व्यंजनान्तर = व्यंजन यानी शब्द । विभिन्न श्रुत वचनों के चिन्तन का पारस्परिक संक्रमण। विधान = जीव-पुद्गलादि के भेद। वीचार = अर्थ, व्यंजन और योग का परिवर्तन/संक्रान्ति । विषय का प्रथम ज्ञान वितर्क है। उसका बार-बार चिन्तवन वीचार है। विमान = वैमानिक देवों का निवास स्थान । शैलेशी = पर्वतराज के समान स्थिर । सयोग केवली - अयोग केवली - केवल ज्ञानी जब तक विहार और उपदेश करते हैं और तीनों योगों से युक्त होते हैं तब तक सयोग केवली और जब आयु के अन्तिम समय में विहार एवं उपदेश से विराम ले लेते हैं तब अयोग केवली कहलाते हैं। सयोग केवली १३वें और अयोग केवली १४वें गुणस्थानवर्ती होते हैं। संहनन = सघनता, दृढ़ता। अस्थियों का दृढ़बन्धन विशेष । वज्रऋषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन - ये तीन उत्तम संहनन हैं। इन्हीं में ध्यान संभव है। 32
SR No.022098
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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