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________________ तस्स य संतरणसहं सम्मद्दंसण- सुबंधणमणग्धं । णाणमयकण्णधारं चारित्तमयं महापोयं ॥ ५८ ॥ संवरकयनिच्छिद्दं तव पवणाइद्धजइणतरवेगं । वेरग्गमग्गडियं विसोत्तियावीइनिक्खोभं ॥५६॥ आरोढुं मुणि- वणिया महग्घसीलंग - रयणपडिपुन्नं । जह तं निव्वाणपुरं सिग्घमविग्घेण पावंति ॥६०॥ संसार रूपी समुद्र से हमारा चारित्र रूपी वह महापोत ही पार उतार सकता है जिसका कर्णधार ज्ञान हो, जिसके छेदों को संवर ने बन्द कर रखा हो, जो तप रूपी वायु के कारण वेगवान हो, जो वैराग्य के मार्ग पर चल रहा हो और दूषित ध्यान की लहरें जिसे क्षुब्ध नहीं कर पा रही हों। वास्तव में शीलांग रूपी बेहद कीमती रत्नों से भरे हुए चारित्र रूपी महापोत पर चढ़कर मुनिरूपी व्यापारी निर्वाण रूपी नगर तक निर्बाध जा पहुँचते हैं। तत्थ य तिरयणविणिओगमइयमेगंतियं निरावाहं । साभावियं निरुवमं जह सोक्खं अक्खयमुर्वेति ॥ ६१॥ उक्त निर्वाण रूपी नगर में मुनिजन त्रिरत्नों यानी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र के उपयोग स्वरूप एकान्त, निर्बाध, स्वाभाविक, अनुपम और अक्षय सुख प्राप्त करते हैं। किं ब हुणा ? सव्वं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं । सव्वयसमूहमयं झाइज्जा समयसब्भावं ॥ ६२ ॥ अधिक क्या ? आगम का जो रहस्य जीव अजीव आदि पदार्थों के विस्तार और समस्त नयों के समूह आदि के रूप में है उसका चिन्तवन भी धर्म ध्यान में रत व्यक्ति को करते रहना चाहिए । सव्वप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य । झायारो ना- धणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा ॥६३॥ तमाम प्रमादों से रहित, ज्ञान रूपी धन से संपन्न और क्षीण तथा उपशान्त मोह वाले मुनिजन ही धर्म ध्यान के वास्तविक हक़दार हैं। 21
SR No.022098
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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