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________________ निच्चं चिय जुवइ-पसू-नपुंसग-कुसीलवजियं जइणो। ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ॥३५॥ युवतियों, पशुओं, नपुंसकों और निन्दनीय आचरण करने वाले व्यक्तियों से शून्य स्थान को साधु के ठहरने योग्य माना गया है। ध्यान के समय तो विशेष रूप से वह स्थान इनसे रहित होना चाहिए। थिर-कयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं। गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे व ण विसेसो॥३६॥ लेकिन जो साधु योग में स्थिरता और ध्यान में निश्चलता हासिल कर चुके हैं उनके लिए जनाकीर्ण बस्ती और निर्जन वन से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जो (तो) जत्थ समाहाणं होज मणोवयण-कायजोगाणं। भूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस ॥३७॥ भूतोपरोध (भीड़ भाड़ रूपी बाधा, प्राणीहिंसा, असत्य भाषण आदि) से रहित वह जगह जहाँ मन, वचन, काय के योगों का समाधान हो ध्यान के अनुकूल है। कालोऽवि सोच्चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ। न उ दिवस-निसा-वेलाइनियमाणं झाइयो भणियं ॥३८॥ मन, वचन, काय के योग का श्रेष्ठ समाधान कारक समय ही ध्यान के योग्य है। ध्यान के लिए दिन, रात, वेला आदि का कोई नियम नहीं है। जच्चिय देहावत्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ। झाइजा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा॥३६॥ देह की जिस अभ्यस्त अवस्था में निर्बाध ध्यान सम्भव हो उसी अवस्था में ध्यान करना चाहिए । इसमें बैठे या खड़े रहने के किसी खास आसन का महत्त्व नहीं है। 16
SR No.022098
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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