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________________ ध्यानशतक वीरं सुक्कज्जणग्गिदड्ढकम्मिधण पणमिऊणं। जोईसरं सरण्णं झाणज्झयणं पवक्खामि॥१॥ शुक्ल ध्यान की अग्नि से कर्म के ईंधम को जला देने वाले योगीश्वर और सभी के शरण्य भगवान महावीर को नमन करके मैं ध्यानाध्ययन (ध्यानशतक) की रचना करता हूँ। जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। .. तं होज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ॥२॥ मन का एकाग्र होना ध्यान है। इसके विपरीत उसका चंचल होना सामान्यतः भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता है। अंतोमुत्तमेतं चित्तावत्थाणमेगवत्थुमि। छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥३॥ किसी वस्तु में थोड़ी देर के लिए मन लगना सांसारिक प्राणियों का ध्यान कहलाता है। इसके विपरीत योगों यानी देह के सम्बन्ध से जीव के व्यवहारों के नष्ट हो जाने, चित्त का अभाव हो जाने को जिनेन्द्रों का ध्यान कहते हैं। अंतोमुहत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होजाहि। सुचिरंपि होज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो॥४॥ सांसारिक प्राणियों का थोड़ी ही देर में ध्यानान्तर हो जाता है। उनका चित्त या चिन्ता संक्रमित हो जाती है। चूंकि अन्तरंग, बहिरंग में वस्तुओं की कमी नहीं है इसलिए चित्त का यह संक्रमण होता रहता है। यह क्रम लम्बे समय तक चल सकता है।
SR No.022098
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size5 MB
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