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________________ श्राद्धविधि प्रकरण मोगरग जुहिआओ, उन्हेंच्छूढा चिरं हुंति ॥१॥ मगति अपुप्फाई उदयेच्छुढा जाम न धरति ॥ उप्पल पउमाइपुण, उदयेच्छूढा चिरं हुंति ॥ २ ॥ .. उत्पल कमल उदक योनीय.होनेसे एक प्रहर मात्र भो आताप सहन नहीं कर सकता। वह एक प्रहरके अन्दर ही अचित हो जाता है । मोगरा, मचकुन्द, जुईके फूल उष्णयोनिक होनेसे बहुत देर तक आतापमें रह सकते हैं ( सवित रहते हैं ) मोगरेके फूल पानीमें डाले हों तो प्रहर मात्र भी नहीं रह सकते, कुमला जाते हैं । उत्पल कमल (नील-कमल) पद्मकमल ( चन्द्रविकाशी ) पानीमें डाले हों तथापि बहुत समय तक रहते हैं । ( सचित रहते हैं परन्तु कुमलाते नहीं) कल्प व्यवहारकी वृत्तिमें लिखा है कि: पत्ताणं पुप्फाणं । सरडु फलाणं तहेव हरिआणं ॥ बिदमि भिलाणमि । नायव्वं जीव विप्पजढं ॥ पत्रके, पुष्पके, कोमल फलके एवं वाथुल आदि सर्व प्रकारकी भाजियोंके, और सामान्यसे सर्व वनस्पतियोंके ऊगते हुये अंकूर, मूल नाल वगैरह कुमला जायँ तब समझना कि अब वह बनस्पति अचित हुई है। चावल आदि धानके लिये भगवती सूत्रके छठे शतकमें पांचवे उद्देश्यमें सचित अचितके विभाग बतलाते हुये कहा है कि___ अहणं भंते सालीणं वीहीणं गोहुमाणं जवाणं जवजवाणं एसिणं धन्नाणं कोट्ठा ऊत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं। मालाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं पिहिआणं मुद्दिआणं लेछिआणं केवइयं कालं जोणीसं विदुई । गोयम्मा जहण्णेणं अंतो मुहुरा उक्कोसेण तिन्नि संवच्छराई तेणपरं जोणि पमिलाइ विद्धसइ वीरा अबीरा भवई। (भगवान् से गौतम ने पूछा कि,) "हे भगवन् ! शालिकमोदके चावल, कमलशालि चावल, व्रीहि याने सामान्य से सर्व जाति के चावल, गेहूं, जौ, सब तरहके जत्र, जवनव याने बड़े जव, इन धान्यों को कोटारमें भर रक्खा हो, कोठीमें भर रक्खा हो, माचे पर बांध रक्खे हों, ठेकेमें भर रक्खे हों, कोठीमें डाल कर कोठीके मुख बंद कर लींप दिये हों, चारों तरफ से लीप दिये हों, ढकनेसे मजबूत कर दिये हों, मुहर । र रक्खे हों या ऊपर निशाण किये हों, ऐसे संचय किये हुये धान्य की योनि ( ऊगनेकी शक्ति) कितने वख्ततक रहती है,?" (भगवान् ने उत्तर दिया कि,)" हे गौतम ! जघन्य से-कम से कम अंतर्मुहूर्त ( दो घड़ीके अन्दरका समय ) तक योनि रहती है, इसके बाद योनि कुमला जाती है, नाशको प्राप्त होती है, बीज अबीज रूप बन जाता है।" फिर पूछते हैं कि, अहभंते कलाय मसूर, तिल मुग्ग मास निप्फा व कुलथ्थ अलिसंदग सइण पलिमंथग माइण एएसिणं धन्नाणं जहा साली तहा एयाणविणवरं पंच संवच्छराई सेसं तंचेव ॥... . "हे भगवन् ! कलाय, ( भिवुड नामका धान्य था त्रिपुरा नामका धान्य, किसी अन्य देशमे होता है सो)
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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