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________________ ६४ श्राद्धविधि प्रकरणं कितनेक आचार्य ऐसा कहते हैं कि गृहस्थों के लिये त्रिविध २ प्रत्याख्यान नहीं हैं । परन्तु श्रावकापाती में नीचे लिखे हुये कारण से श्रावक को त्रिविध २ प्रत्याख्यान करने की जरुरत पड़े तो करना कहा है। पुत्ताइ संतति निमित्त । मतमेक्कारसिं पवण्णस्स। जपंति केइ गिहिणो । दिख्खाभि मुहस्स तिविहंपि ॥ २ ॥ कितनेक आचार्य कहते हैं कि ग्रहस्थ को दीक्षा लेने की इच्छा हुई हो परन्तु किसी कारण से या किसी के आग्रह से पुत्रादिक सन्तति को पालन करने के लिये यदि कुछ काल विलम्ब करना पड़े तो श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करे उस वक्त बीच कारण में जो कुछ भी त्रिविध २ प्रत्याख्यान लेना हो तो लिया जा सकता है। जइकिंचि दप्पोमण । मप्पप्पवा विसेसीउवथ्थु ॥ पचरूखेज्जन दोसो । सयंभूरमणादि मच्छुव्य ॥ ३॥ जो कोई अप्रयोजनीय वस्तु यानी कौवे वगैरह के मांस भक्षण का प्रत्यख्यान एवं अप्राप्य वस्तु जैसे कि मनुष्य क्षेत्र से बाहर रहे हुये हाथियों के दांत या वहां के चीते प्रमुख का चर्म उपयोग में लेने का, स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न हुवे मच्छों के मांस का मक्षण करने का प्रत्याख्यान यदि त्रिविध २ से करे तो वह करने की आज्ञा है क्योंकि यह विशेष प्रत्याख्यान गिना जाता है, इसलिए वह किया जा सकता है । आगम में अन्य भी कितनेक प्रकार के श्रा "श्रावक के प्रकार"। स्थानांग सूत्र में कहा है कि चडबिहा समणोवासमा पन्नता तंजहा ॥ १ अम्मापिहसमाणे २ भायसमाणे ३ मित्तसमाणे ४ सव्वतिसमाणे॥ १ माता पिता समान यानी जिस प्रकार माता पिता पुत्र पर हितकारी होते हैं वैसे ही साधु पर हितकर्ता २ भाई समान-यानी साधु को भाई के समान सर्व कार्य में सहायक हो । ३ मित्र समान-यानी जिस प्रकार मित्र अपने मित्र से कुछ भी अंतर नहीं रखता वैसे ही साधु से कुछ भी अन्तर न रखे और ४ शोक समानयानी जिस प्रकार सौत अपनी सौत के साथ सब बातों में ईर्षा ही किया कस्ती है वैसे हो सदैव साधु के छल छिद्र ही ताकता रहे। अन्य भी प्रकारांतर से प्रावक चार प्रकार के कहे हैं - चउठिवहासमणो वासगा पन्नत्ता तजहा ॥ ... . १ आयससमाणे २ पडागसमाणे ३ थाणुसमाणे ४ खरंटयसमाणे ॥ १-दर्पण समान श्रावक-जिस तरह दर्पण में सर्व वस्तु सार देख पड़ती है वैसे ही साधु का उपदेश सुनकर
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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