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________________ .. श्राद्धविधि प्रकरण :.... . का यही उपाय है। जैसे अपुत्र मनुष्य पुत्र प्राप्ति की बात सुन कर बड़ा प्रसन्न होता है वैसे शुकराज भी साधु महाराज के वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुवा । तदनन्तर वह उन्हें विनय पूर्वक चंदन कर विमान पर बैठ कर विमलावल तीर्थ पर गया। वहां प्रथम उसने तीर्थनायक श्री ऋषभदेव स्वामी की भक्तिभाव पूर्वक यात्रा की। तत्पश्चात् ज्ञानी गुरु के कथन किये मुजब महिमावंत नवकार मंत्र का जाप शुरू किया। योगियों के समान निश्चलवृत्ति से उसने छह महीने तक परमेष्टी मंत्र का जाप किया, इस से उसके आस पास विस्तार को प्राप्त होता हुवा तेज पुंज प्रकट हुवा । ठोक इसी अवसर पर चन्द्रशेखर की गोत्र देवी उसके पास आकर कहने लगी कि हे चन्द्रशेखर! अब बहुत हुआ, अब तू अपने स्थान पर चला जा! क्योंकि मेरे प्रभाव से जो तेरा शुकराज के समान रूप बना हुवा है अब उसे वैसा रखने के लिए मैं समर्थ नहीं हूं। अब मैं स्वयं ही निःशक्त बन जाने से मेरे स्थान पर चली जाती हूं। यदि अब तू शीघ्र ही अपने स्थान पर न चला जायगा तो तत्काल ही तेरा मूल रूप बन जायगा। ऐसा कह कर जब देवी पीछे लौटती है उतने में ही उस का स्वाभा. विक रूप बन गया। देवी के वचन सुन कर चंद्रशेखर लक्ष्मी से भ्रष्ट हुए मनुष्य के समान हर्ष रहित चिंता निमग्न हुवा । अब वह अपने पाप को छिपाने के लिये चोर के समान जब वहां से भागता है ठीक उसी समय शुकराज वहां पर आ पहुंचा। पहले शुकराज के ही समान असली शुकराज का रूप देख कर दीवान वगैरह उसे बहुमान देकर उसके विशेष स्वरूप से वाकिफगार न होने पर भी सहर्ष विचारने लगे कि, सचमुच कोई कपट से ही वह इस शुकराज का रूप धारण करके आया हुवा था, इसी से अब डर कर भाग गया। . शुकराजको अपना राज्य मिलने पर निश्चित हो वह पूर्ववत् अपने प्रजाके पालन करने में लग गया। शत्रुजय के सेवन का फल प्रत्यक्ष देख कर राज्य करते हुए वह इंद्र के समान संपदावान् बनकर दैविक कांति वाला नये बनाये हुये विमान के आडंबर सहित सर्व सामंत, प्रधान, विद्याधर, वगैरह के बड़े परिवार मंडल को साथ लेकर महोत्सव पूर्वक विमलाचल तीर्थ पर यात्रा करने को आया। उस के साथ मनमें यह समझता हुवा कि मेरा दुराचार किसी को भी मालूम नहीं है ऐसा सदाचार सेवन करता हुवा शंकारहित हो चंद्रशेखर भी विमलाचल की यात्रा के लिए आया था। शुकराज सिद्धाचल आकर तीर्थनायक की वंदना, स्तवना एवं पूजा महोत्सव करके सबके समक्ष बोलने लगा कि, इस तीर्थ पर पंच परमेष्टी का ध्यान धरने से मैंने शत्रुओं पर विजय प्राप्तकी । इसलिए इस तीर्थका शत्रुजय यह नाम सार्थक ही है और इसी नामसे यह तीर्थ महा महिमावंत होगा। इसके बाद यह तीर्थ इस नाम से पृथवी पर बहुत ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुवा है । ऐसे अवसर पर चंद्रशेखर भी शांत परिणाम से तीर्थनायक को देख कर रोमांचित हो अपने किये हुये कपट और पाप की निंदा करने लगा। वहां पर उसे महोदय पद धारी मृगध्वज कैवली महाराज मिले । उसने उनसे पूछा कि हे स्वा. मिन् ! किसी भी प्रकार मेरा कर्म से छुटकारा होगा या नहीं ? केवली महाराज ने कहा कि यदि इस तीर्थ पर मन वचन कायाकी शुद्धि से आलोचना ले पश्चात्ताप करके बहुत सा तप करेगा तो तेरे भी पाप कर्म तीर्थ की महिमा से नष्ट होंगे। कहा है कि जन्मकोटकृतमेकहेलया, कर्म तीव्रपसा विलीयते ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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