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________________ समर्पण अनेक गुण विभूषित परम गुरुदेव श्रीमान् विजय वल्लभ सूरीश्वर महाराज की पूनीत सेवामें पूज्यवर्य गुरुदेव ! आपश्रीने जो मुझ किंकर पर अमूल्य उपकार किये हैं उस ऋणको मैं किसी प्रकार भी नहीं चुका सकता। प्रभो ! मैं चाहे जिस भेष और देशमें रहकर अपने कर्तव्य कार्योंमें प्रवृत्ति करता रहूं परन्तु आपश्री के मुझपर किये हुये उपकारोंका चित्र सदैव मेरे सन्मुख रहता है और मुझसे बने हुये यत्किंचित् उन प्रशस्त कार्योंको आपकी ही कृपा समझकर आपको ही अर्पित करता रहता हूं। ... वर्तमान जैन समाजकी बीमारीका निदान आप भली प्रकार कर सके हैं अतः आप उस सामाजिक अज्ञान तिमिर रोगको दूर करनेके लिये जैन समाजमें आज ज्ञान प्रचार औषधीका अद्वितीय प्रचार कर रहे हैं। इस क्रान्तिकारी युगमें प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह उदार भाव पूर्वक अपने धर्म और समाजकी उन्नतिके कार्यके साथ साथ देशहित कार्योंमें भी अपनी शक्तिका कुछ हिस्सा अवश्य व्ययकरे इस बातको भली प्रकार समझ कर आप श्री देश हितार्थ और त्यागी पदको सुशोभित करने वाली खादीको स्वयं अंगीकार कर इस फैसन प्रिय जैन समाजमें उसका प्रचार कर रहे हैं। आप हिन्दी प्रचारके भी बड़े प्रेमी हैं। आपकी सदैव यह इच्छा रहती है कि जैन धर्म संबन्धी आचार विचार के ग्रन्थ हिन्दी भाषामें अनुवादित हो प्रकाशित होने चाहिये और आप तदर्थ प्रबृत्ति भी करते रहते हैं। समाजक आचार्य उपाध्याय आदिपद धारी विद्वानोंमें समाज को समया नुसार समुन्नतिके पथ पर लेजानेके लिये अश्रान्त प्रवृत्ति करने वालोंमें आज आपका नाम सबसे प्रथम गिना जाता है। आपके इन अनेकानेक परोपकार युक्त सद्गुणों से मुग्ध हो मैं यह अपना छोटासा शुभप्रयत्न जन्य श्राद्धविधिका हिन्दी अनुवाद आपके पवित्र करकमलों में समर्पित करता हूं। आशा है कि आप इसे स्वीकृत कर मुझे विशेष उपकृत करेंगे। भवदीय तिलक
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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