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________________ श्राद्ध विधि प्रकरण ३५ राई, सरसव जितने पर के लघु छिद्र देखने के लिये मूर्ख प्राणी यत्न करता है, परन्तु बिल्व फल के समान बड़े बड़े अपने छिद्रों को देखने पर भी नहीं देखता । 1 अरे मूर्ख ! तू अपनी ही माता और पुत्री को दोनों तरफ बैठाकर उनके साथ काम क्रीड़ा करता है और अपने मित्र को स्वयं समुद्र में डालने वाला तू अपने आप पापी होने पर भी हम निरापराधी पशुओं की क्यों निंदा करता है | तेरे जैसे दुष्ट को धिःकार है ! ऐसा कह कर वह बंदर छलांग मारता हुआ अपनी वानरियों सहित जंगल में दौड़ गया । वानर के वचनों ने श्रीदत्त के हृदय पर वज्राघात का कार्य किया । वह सखेद अपने मन में विचारने लगा कि यह वानर ऐसे अघटित वाक्य क्यों बोल गया ? यह कन्या तो मुझे समुद्र में से प्राप्त हुई है, तब यह मेरी पुत्री किस तरह हो सकती है ? एवं यह स्वर्णरेखा गणिका भी मेरी जनेता कैसे हो सकती है ? मेरी माता सोमश्री तो इसकी अपेक्षा कुछ सांवली है। उमर के अनुमान से कदाचित् यह कन्या मेरी पुत्री हो सकती है परन्तु यह वेश्या तो सर्वथा ही मेरी माता नहीं हो सकती । संशयसागर में डूबे हुए श्रीदत्त को पूछने पर गणिका ने उत्तर दिया कि, तो कोई मूर्ख जैसा मालूम पड़ता है। मैंने तो तुझे आज ही देखा है । पहले कदापि तू मेरे देखने में नहीं आया, तथापि ऐसे पशुओं के वचन से शैकाशील होता है, इसलिये तू भी पशु के समान ही मुग्ध मालूम होता है। सुवर्णरेखा का वचन सुनकर भी उसके मनका संशय दूर न हुआ। क्योंकि बुद्धिमान पुरुष किसी भी कार्य का जब तक संशय दूर न हो तब तक उसमें प्रवृत्ति नहीं कर सकता। इस प्रकार संशय में दोलायमान चित्तवाले श्रीदत्त ने वहां पर इधर उधर घूमते हुए एक जैन मुनि को देखा । भक्तिभाव सहित नमस्कार कर श्रीदत्त पूछने लगा कि महाराज ! वानर ने मुझे जिस संशय रूप समुद्र में डाल दिया है, आप अपने ज्ञान द्वारा उससे मेरा उद्धार करें। मुनि महाराज ने कहा कि सूर्य के समान, भव्य प्राणी रूप पृथ्वी में उद्योत करने वाले केवल ज्ञानी मेरे गुरु महराज इस निकट प्रदेश में ही विराजमान हैं। उनके पास जाकर तुम अपने संशय से मुक्त बनो । यदि उनके पास जाना न बन सके तो मैं अपने अवधिज्ञान के बल से तुझे कहता हूं कि जो वाक्य वानर ने तुझे कहा है वह सर्वश वचन के समान सत्य है । श्रीदत्त ने कहा कि महाराज ! ऐसा कैसे बना होगा ? मुनि महाराज ने जवाब दिया कि मैं पहले तेरी पुत्री का संबंध सुनाता हूं। सावधान होकर सुन । तेरा पिता सोमसेठ अपनी स्त्री सोमश्री को छुड़ाने के आशय से किसी वलवान राजा की मदद लेने के लिए परदेश जा रहा था उस वक्त रास्ते में संग्राम करने में क्रूर ऐसे समर नामक पल्लीपति ( भीलों का राजा ) को देखकर और उसे समर्थ समझकर साढ़े पांच लाख द्रव्य समर्पण कर बहुत से सैन्य सहित उसे साथ ले श्री. मंदिरपुर तरफ लौट आया । असंख्य सैन्य को आते हुए देखकर उस नगर के लोक भयभीत हो जैसे संसार रूप कैदखाने में से दुःखित हो भव्यप्राणी मोक्ष जानेका उद्यम करता है उसी प्रकार निरुपद्रव स्थान तरफ दौड़ने लगे। उस वक्त तेरी सुमुखी मनोहर स्त्री गंगा महानदी के किनारे बसे हुए सिंहपुर नगर में अपनी पुत्री सहित अपने पिता के घर जा रही। क्यों कि पतिव्रता स्त्रियों के लिए अपने पति के वियोग समय में भाई या पिता के सिवाय अन्य कोई आश्रय करने योग्य स्थान नहीं है। अतः वह पीहर में अपने दिन बिताने लगी ।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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