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________________ श्रादविधि प्रकरण केवल ज्ञानी जानता है तथापि उस आहारको वह ग्रहण करता है। क्योंकि यदि इस प्रकार आहार ग्रहण न करें तो श्रुतज्ञान की अप्रमाणिकता शाबित होती है। दूषम कालके प्रभावसे बारह वर्षी दुष्कालादि के कारण श्रुतज्ञान विच्छेद होता जान कर भगवंत नागार्जुनाचार्य और स्कंदिलाचार्य बगैरह आचार्योंने मिल कर श्रुतज्ञान को पुस्तकोंमें स्थापन किया। इसी कारण श्रुतज्ञान की बहुमान्यता है। अतः श्रुत ज्ञानके पुस्तक लिखवाना, पवित्र, शुद्ध वस्त्रोंसे पूजा करना, सुना जाता है कि पेथड़शाह ने सात, और मन्त्री वस्तुपाल ने अठारह करोड़ द्रब्य ब्यय करके, ज्ञानके तीन बड़े भण्डार लिखवाये थे। थराद के संघवी आभूशाह ने एक करोड़ का व्यय करके सकल आगम की एकेक प्रति सुनहरी अक्षरों से और अन्य सब ग्रन्थों की एकेक प्रति शाईके अक्षरों से लिखा कर भण्डार किया . था। दशम द्वार समाप्त। ग्यारहवां द्वारः-श्रावकों को पौषध ग्रहण करने के लिये साधारण स्थान पूर्वोक्त गृह चिना की रीति मुजब पौषधशाला कराना । वह साधर्मियों के लिये बनवायी होनेके कारण गुणयुक्त और निरवद्य होनेसे यथावसर साधुओं को भी उपाश्रय तया देने लायक हो सकती है और इससे भी उन्हें महा लाभकी प्राप्ति होती है इसलिये कहा है किजो देइ उवस्सयं जइ वराण तव नियम जोग जुत्ताणं। तेणं दिन्ना वथ्यन्न पाणसयसणा बिगप्पा ॥१॥ तप, नियम, योगमें युक्त मुनिराज को, जो उपाश्रय देता है उसने वस्त्र, पात्र, अन्न, पानी, शयन, आसन, भी दिया है ऐसा समझना चाहिये। ___ श्री वस्तुपाल ने नव सौ और चौरासी पौषधशाला बनवाई थीं। सिद्धराज जयसिंह के बड़े प्रधान सांतु नामकने एक नया आवास याने रहनेके लिये महल तयार कराया था। वह बादी देवसूरी को दिखलाकर पूछा कि स्वामिन् यह महल कैसा शोभनीक है ? उस वक्त समयोचित बोलने में चतुर माणिक्य नामक शिष्यने कहा कि यदि यह पौषधशाला हो तो बहुत ही प्रशंसनीय है। मंत्री बोला कि यदि आपकी इच्छा ऐसी ही है तो अबसे यह पौषधशाला ही सही। (ऐसा कह कर वह मकान पौषधशाला के लिये अर्पण कर दिया) उस पौषधशालाके दोनों तरफके बाहरी भागमें पुरुष प्रमाण दो बड़े सीसे जड़े हुये थे। वे श्रावकों को धम ध्यान किये बाद मुख देखने के लिये और जैन शासन के शोभाकारी हुए। इस ग्यारहवें द्वारके साथ पंद्रहवीं गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। मूल गाथा आजम्मं समतं, जह सत्ति वयाइं दिक्खगह अहवा। आरंभचाओ बंभंच, पडिमाइ अंति आराहणा ॥१६॥ १२ वर्वा आजन्म सम्यक् द्वार, १३ वां यथाशक्ति व्रत द्वार, १४ वां दीक्षा ग्रहण द्वार, १५ वा आरम्भ
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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