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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३३ द्वीप में चला गया। वहांपर दोनों मित्रों ने दो वर्ष तक व्यापार कर अनेक प्रकार लाभ द्वारा बहुतसा द्रव्य संपादन किया । विशेष लाभ की आशा से वे वहां से कटाह नामक द्वीपमें गये और वहां भी दो वर्ष तक रह कर न्याय पूर्वक उद्यम करने से उन्हों ने आठ करोड़ द्रव्य प्राप्त किया। क्योंकि जब कर्म और उद्यम ये दोनों कारण बलवान होते हैं तब धन उपार्जन करना कुछ बड़ी बात नहीं । • अब बे. अगम्य पुण्य वाले दोनों मित्र बड़े बड़े जहाजों में श्रेष्ठ और कीमती किरयाणा भरकर सानंद पीछे 'अपने देश को लौटे। उन्होंने जहाज में बैठे हुये समुद्र में तैरती हुई एक पेटी देखी। उसे खलासी द्वारा पकड़ मंगवाकर जहाज में बैठे हुवे सर्व मनुष्यों को साक्षीभूत रखकर उस पेटी में का द्रव्य दोनों मित्रों को आधा आधा लेना ठहरा कर उस पेटी को खोलने लगे। पेटी खोलते ही उसमें नीम के पत्तों से लिपटाई हुई और जहर के कारण जिसके शरीर का हरित वर्ण होगया है ऐसी मूर्छागत एक कन्या देखने में आई । यह देख तमाम मनुष्य आश्चर्य चकित होगये । शंखदन्त ने कहा कि सचमुच ही इस कन्या को किसी दुष्ट सर्प ने डंस - लिया है और इसी कारण इसे किसी ने इस पेटी में डालकर समुद्र में छोड़ दी है यह अनुमान होता है। तदनंतर उसने उस लड़की पर पानी के छांटे डाले और अन्य उपचार करने से तुरंत ही उस कन्या की मूर्च्छा दूर होगयी। लड़की के स्वस्थ हो जाने पर शंखदत्त खुशी होकर कहने लगा कि इस मनोहर रूपवती कन्या को मैंने जीवन किया है इसलिए मैं इस के साथ शादी करूंगा। श्रीदत्त कहने लगा कि ऐसा मत बोलो ! हम दोनों ने पहले ही यह सब की साक्षी से निश्चय किया है कि इस पेटी में जो कुछ निकले वह आधा आधा बांट लेना इसलिए तेरे हिस्से के बदले में तूं मेरा सर्व द्रव्य ग्रहण कर ! और इस कन्या को मुझे दे। इस प्रकार आपस में विवाद करने से उन की पारस्परिक मैत्री टूट गई। कहा है कि: रमणीं विहाय न भवति विसंहतिः स्निग्धबन्धुजन मनसाम् ! यत्कुंचिका सुदृढमपि तालकबन्धं द्विधा कुरुते ॥ ६ ॥ जिस प्रकार कुंबी अति कठिन होने पर भी लगाये हुए ताले को उघाड़ देती है, उसी प्रकार सच्चे स्नेहपुरुषों के मन की प्रीति में स्त्री के सिवाय अन्य कोई भेद नहीं डाल सकता । इस प्रकार दोनों मित्र कदाग्रह द्वारा अतिशय क्लेश करने लगे। तब खलासी लोकों ने उन्हें समझाकर कहा कि अभी आप धीरज धरो। यहां से नजदीक ही सुवर्णकुल नामक बंदर है; वहाँपर हमारे जहाज दो दिन में जा पहुंचेंगे, वहां के बुद्धिमान पुरुषों के पास आप अपना न्याय करा लेना । खलासियों की सलाह से शंखदत्त तो शांत होगया, परंतु श्रीदत्त मन में विचारने लगा “यदि अन्य लोगों के पास न्याय कराया जायगा तो सचमुच ही शंखदत्त ने कन्या को सजीवन किया है, इसलिये वे लोग इसे ही कन्या दिलावेंगे, इसलिये ऐसा होना मुझे सर्वथा पसंद नहीं। खैर वहांतक पहुंचते ही मैं इसका रास्ते में घाट घड़ डालूं तो ठीक हो। इस प्रकार के दुष्टविवार से कितने एक प्रपंचों द्वारा अपने ऊपर विश्वास जमाकर एक दिन रात्रि के समय श्रीदत्त जहाज की गोखपर चढ़कर शंखदत्त को बुलाकर कहने लगा कि 'हे मित्र ! वह देख ! अष्टमुखी मत्स्य जा रहा है, क्या ऐसा मगरमच्छ तूने कहीं देखा है" ? यह सुन कौतुक देखने की आशा से जब शंखदत्त जहाज की गोख
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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