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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ___ जो मनुष्य बड़ी दूढ़ ओर कठोर शिलाएँ गड़वा कर शुभमति से जिनभुवन कराता है वह प्राणी महान पुण्यका पात्र बन कर वैमानिक देव हो इसमें नवीनता ही क्या है ? अर्थात् वैसा मनुष्य अवश्य ही वैमानिक देव होता है । परन्तु विधि पूर्वक कराना चाहिये । मन्दिर कराने का विधि इस प्रकार कहा है कि प्रथम से शुद्ध भूमि, ईट पत्थर, काष्ठादिक, सर्व शुद्ध सामग्री, नौकरोंको न ठगना, बढई राज, सलाट वगैरह का सत्कार करना। प्रथम घर बांधनेके अधिकार में जो कहा गया है सो यथायोग्य समझ कर विधिपूर्वक मंदिर बंधवाना चाहिये। इसलिये कहा है किधम्मथ्य मुज्जएणं, कस्सविं अप्पतिमंन कायव्वं । इय संजयो विसेमो, एथ्यय भयवं उदाहरणं ॥१॥ धार्मिक कार्योंमें उद्यमवान मनुष्य को किसीको भी अप्रीति उत्पन्न हो वैसा आचरण न करना चाहिये । यहां पर नियममें रहना श्रेयस्कर है, उस पर भगवन्त का दृष्टान्त कहा है। सो वावसी समायो, तेसिं अप्पशिम मुणेऊणं । परमप्रबोहिअबीन, तो गयो हंत क्यालेवि ॥२॥ उन तापसोंके आश्रमसे उन्हें परम उत्कृष्ट अबोधि बीजके कारणरूप अप्रतीत उत्पन्न हुई जान कर भग. वान उसी बख्त वहांसे अन्यत्र चले गये। कठाइ विदलं इह, सुद्धजं देवया दुववणामो। ___णों अविहिणो वणियं, सयंवकरां विज नो॥३॥ यहां पर मन्दिर करानेमें जिस देवतासे अधिष्ठित वृक्षके, उस प्रकारके किसा वनसे मंगाये हुए अष्टादिक दल ग्रहण करना। परन्तु अविधिसे लाये हुए काष्ठादिक को न लेना। एवं शास्त्र या गुरुकी संमति विना स्वयं भी कराये हुए न लेना । कम्पकरायवराया, अहिगेण दढं उचिंति परिमोसं। तुठ ठाय तथ्य कम्म, तत्तो अहिगं पकुव्वंति ॥४॥ जो काम काज करने वाले नौकर चाकर तथा राजा इन्हें अधिक धन देनेसे संतोषित हो वे अधिक काम करते हैं। मन्दिर कराये बाद पूजा, रचना वगैरह करके भावशुद्धि के निमित्त गुरु संघ समक्ष इस प्रकार बोलना कि इस कार्यमें 'जो कुछ अविधिसे दूसरेका द्रव्य आया हो उसका पुण्य उसे हो।' इस लिये षोडशक प्रथमें कहा है कियद्यस्य सत्कमनुचित मिहविरोतस्यतज्जमिहपुण्य । भवतु शुभाशयकरणा, दित्येतद्भाव शुद्ध स्यात् ॥५॥ ___मन्दिर बंधवाने में या पूजा रचानेमें जो जिसका अनुचित द्रव्य आया हो तत्सम्बन्धी पुण्य उसे ही हो। इस प्रकार शुभाशय करनेसे भावशुद्धि होती है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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