SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४०६ आलो अणयाएणं भंते जीवे कि जणईगो। आलो अणयाएणं माया निपाण मिच्छादसण सल्लणं । अणंत संसार वढ्ढणा उद्धरणं करेइ । उज्जु भावं चणं जणई । उज्जु भाव पाडवन्ने अजीवे अभाई इथ्थीवन पुसग बेअंच न वंधइ । पुव्व वध्दं चणां निजरेइ ॥ (प्रश्न ) हे भगवन् ! आलोयण लेनेसे क्या होता है ? ( उत्तर ) हे गौतम ! अलोयणा लेनेसे मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यात्व शल्य, जो अनन्त संसारको बढ़ाने वाले हैं उनका नाश होता है। सरलभाव प्राप्त होता है। सरल भाव प्राप्त होनेसे मनुष्य कपट रहित होता है। स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, नहीं बांधता। पूर्व में बांधे हुए कर्मको निर्जरा करता है-उन कर्मोंको कम करता है । आलोयणा लेनेमें इतने गुण हैं । यह श्राद्ध जित कल्पसे और उसको वृत्तिसे उद्धत करके यहां पर आलोयणा का विधि बतलाया है। तीब्रतर अध्यवसाय से किया हुआ, वृहत्तर बड़ा, निकाचित-दृढ बांधा हुआ भी, बाल, स्त्री, यति, हत्या, देवादिक द्रव्य भक्षण, राजा की रानी पर गमनादिक महा पाप, सम्यक् विधि पूर्वक गुरु द्वारा दिया हुआ प्रायश्चित्त ग्रहण करने से उसी भवमें शुद्ध हो जाता है। यदि ऐसा न हो तो दृढ़प्रहारी आदिको उसी भवमें मुक्ति किस तरह प्राप्त हो सकती। इस लिये प्रतिवर्ष और प्रति चातुर्मास अवश्यमेव आलोयणा ग्रहण करना ही चाहिये। षष्टम प्रकाश ॥ जन्म कृत्य ॥ अव तीन गाथा और अठारह द्वारसे जन्मकृत्य बतलाते हैं। मूल गाथा। जम्मंमि वासठाणं, तिवग्ग सिद्धीइ कारणं उचिअं। उचिअं विज्जा गहणं, पाणिग्गहणं च मित्ताई ॥१४॥ जिन्दगी में सबसे पहले रहने योग्य स्थान ग्रहण करना उचित है। सो विशेषण द्वारसे हेतु बतलाते हैं। जहां पर धर्म, अर्थ व काम इन तीनों वर्गका यथा योग्यतया साधन हो सके ऐसे स्थानमें श्रावक को रहना चाहिए। परन्तु जहां पर पूर्वोक्त तीनों वर्गोंकी साधना नहीं हो सके वह दोनों भवका विनाशकारी स्थान होनेसे वहां निवास न करना चाहिए । इसलिये नीति शास्त्रमें भी कहा है किन भीलपल्लीषु न चौरसंश्रये, न पार्वती येषु जनेषु संबसेत् न हिंस दुष्टाश्रयलोकसंनिधो, कुसंगतिः साधुजनात्य गर्हिता ॥१॥ भिल्ल लोगोंकी पल्ली में न रहना, जहां बहुतसे चोरोंका परिचय हो वहां पर न रहना, पहाड़ी लोगों के ५२
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy