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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३९७ सुना जाता है कि मंत्री वस्तु पालादिकों का प्रति चातुर्मास में सब गच्छोंके संघकी पूजा बगरह करनेमें बहुत ही द्रव्यका व्यय हुआ करता था। इसी प्रकार श्रावकको भी प्रति वर्ष यथाशक्ति अवश्य ही संध पूजा करनी चाहिए। ॥सधार्मिक वात्सल्य ॥ समान धर्म बाले श्रावकोंका समागम बड़े पुण्यके उदयसे होता है। अतः यथाशक्ति समान धर्मी भाइओंकी हरेक प्रकारसे सहायता करके साधर्मिक वात्सल्य करना चाहिए। सर्वैः सर्व मिथः सर्वं, सम्बन्धान लब्धपूर्विणः। साधमिकादि सम्बन्धः, लब्धारस्तु मिताः क्वचित् ॥१॥ तमाम प्राणिओं ने (माता पिता स्त्री बगरहके ) पारस्परिक सर्व प्रकारके सम्बन्ध पूर्व में प्राप्त किये हैं। परन्तु सामिकादि सम्बन्ध पाने वाले तो कोई विरले हो कहीं होते हैं। शास्त्रोंमें साधर्मी वात्सल्यका बड़ा भारी महिमा बतलाते हुए कहा है किएगथ्य सब धम्मा, साहम्मिन वच्छलं तु एगथ्थ । बुद्धि तुल्लाए तुलिया दोबि अतुल्लाइ भणिभाई ॥१॥ एक तरफ सर्व धर्म और एक तरफ साधर्मिक वात्सल्य रखकर बुद्धिरूप तराजूसे तोला जाय तो दोनों समान होते हैं। यदि संपत्ति और कीमती जन्म व्यर्थ नष्ट होता है इसलिये कहा है किन कयं दीणद्धरण, न कयं साहम्मिमाण वच्छल्लं। हिययम्मि बीयरामो, न धारियो हारिओ जम्मो॥ दोनोंका उद्धार न किया, समान धर्म वाले भाइओंको वात्सल्यता याने सेवा भक्ति नकी, हृदयमें बीतराग देवको धारण न किया तो उस मनुष्य ने मनुष्य जन्मको व्यर्थ हो हार दिया। समर्थ श्रावकको चाहिए कि वह प्रमादके वश या अज्ञानताके कारण उन्मार्गमें जाते हुए अपने स्वधर्मी बंधुको शिक्षा देकर भी उसके हितके वुद्धिसे उसे सन्मार्गमें जोड़े। इस पर श्री संभवनाथ स्वामीका दृष्टान्त ॥ संभवनाथ स्वामीने पूर्वके तीसरे भवमें धातकी खंडके ऐरावत क्षेत्रमें क्षेमापुरीमें बिमल वाहन राजाके भवमें महा दुष्कालके साथमें समस्त साधर्मिकों को भोजनादिक दान देनेसे तीर्थंकर नामकर्म वांधा था। फिर दीक्षा लेकर चारित्र पाल कर आनत नामक देवलोक में देव तया उत्पन्न हो फाल्गुण शुक्ल अष्टमीके दिन जव कि महादुष्काल था उनका जन्म हुआ। देव योगसे उसी दिन चारों तरफसे अकस्मात् धान्यका आगमन हुआ। अर्थात् जहां धान्यका असंभव था वहां धान्यका संभव होनेसे उन्होंका नाम संभवनाथ स्वामी स्थापित हुआ। इसलिये बृहद्भाष्यमें भी कहा है कि
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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