SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण है, इसलिये उसका विचार करना चाहिये। उसमें भी नारकी और तिर्यंच में प्रबल दुःख है सो प्रतीत हो है अतः कहा भी है कि: - "नरकादि दुःखस्वरूप” सत्तसु खित्तज अणा । अन्नुनकयावि पहरणेहिं विणा ॥ . पहरणकयावि पंचसु । तेषु परमाहम्मिन कयावि ॥१॥ सातों नरकोंमें शस्त्र बिना, अन्योन्य कृत, क्षेत्रज-क्षेत्रके स्वभावसे ही उत्पन्न हुई वेदनायें हैं। तथा पहलीसे लेकर पांचवी नरक तक अन्योन्य शस्त्र कृत वेदनायें हैं, और पहलीसे तीसरी नरक तक परमाधामियोंकी का हुई वेदनायें हैं। अच्छि निमीलण मित्त । नथ्यिसुहं दुःखमेव अणुवद्ध॥ ___ नरए नेरइनाणं । अहोनिसं पञ्चमाणाणं ॥२॥ जिन्होंने पूर्व भवमें मात्र दुःखका ही अनुबन्ध किया है ऐसे नारकीके जीवोंको रात दिन दुःखमें संतप्त रहे हुये नरकमें आंख मीच कर उघाड़ने के समय जितना भी सुख नहीं मिलता। जं नरए नेरइया। दुःख्खं पावंति गोयमा तिख्खं ॥ तं पुण निग्गो मझ्झे । अत गुणोभ मुणेअव्वं ॥ ३ ॥ नारक जीव नरकमें जो तीव्र दुःख भोगते हैं, हे गौतम ! उनसे भी अनंत गुणा दुःख निगोदमें रहे हुये निगोदिये जीव भोगते हैं। 'तिरा कसम कुसारा'इत्यादिक गाथासे तिर्यंच चाबुक बगैरह की परवशतामें मार खाते हुये दुःख भोगते हैं ऐसा समझ लेना। मनुष्यमें भी कितने एक गर्भका, जन्म, जरा, मरण, विविध प्रकारकी व्याधि दुःखादिक उपद्रव द्वारा दुखिया ही हैं। देवलोक में भी चवना, दास होकर रहना, दूसरेसे पराभवित होना; दूसरेकी ऋद्धि देख कर ईर्षासे मनमें दुःखित होना बगैरह दुःखोंसे जीव दुःख ही सहता है। इसलिये कहा है कि,सुइहिं अग्गि बनहिं । संभिन्नस्स निरन्तर ॥ जारिसं गोमा दुःख्खं । गम्भे अठ्ठ गुणं तो ॥१॥ .. अग्निके रंग समान तपाई हुई सुईका निरंतर स्पर्श करनेसे प्राणिको जो दुःख होता है हे गौतम ! उससे आठ गुना अधिक दुःख गर्भमें होता है। गम्भाहो निहर तस्स। जोणीजंत निपीलणे॥ ___सयसाहस्सिनं दुख्खा । कोडा कोडि गुणं पिवा ॥२॥ गर्भसे निकलते हुये योनि रूप यंत्रसे पीडित होते गर्भसे बाहार निकलते समय गर्भसे लाख गुना बुःख होता है अथवा क्रोडा गुना भी दुःख होता है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy