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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३७३ भृतेषु तैरेवविमूढ़योषा। वपुष्युत तकिं कुरुषेऽभिलाषं ॥२॥ दूर पड़े हुये अमेध्य ( बिष्टा वगैरह अपवित्र पदार्थ ) को देखकर नासिका चढ़ाकर तू थू थूकार करता है तब फिर हे मूढ़ ! उनसे ही भरे हुये इस स्त्री शरीरमें तू क्यों अभिलाषा करता है ? अमेध्यभस्त्राबहुरन्ध्रनियं । मलाबिलोद्यत्कृमिजाल कीर्णा ॥ चापल्यमायानतबंचिका स्त्री। सस्कार मोहान्नरकाय भुक्ता॥३॥ बिष्टकी कोथली, बहुतसे छिद्रोंमेंसे निकलते हुये मैलसे मलिन, मलिनतासे उत्पन्न हुये उछलते हुये कीड़ोंके समुदाय से भरी हुई, चपलता और माया मृषाबाद से सर्व प्राणियोंको ठगनेवाली स्त्रीके ऊपरी दिखावसे मोहित हो यदि उसे भोगना चाहता है तो अवश्य वह तुझे नरकका कारण हो पडेगी। (ऐसी स्त्री भोगनेसे क्या फायदा?) संकल्प योनि याने मनमें विकार उत्पन्न होनेसे ही जिसकी उत्पत्ति होती है, ऐसे तीन लोककी विडम्बना करनेवाले कामदेव को उसके संकल्प का-बिचारका परित्याग करनेसे वह सुख पूर्वक जीता जा सकता है । इसपर नवीन विवाहित श्रीमंत गृहस्थोंकी आठ कन्याओं के प्रतिबोधक, निन्यानवे करोड़ सुवर्ण मुद्राओं का परित्याग करनेवाले श्री जम्बूस्वामी का, साढे बारह करोड़ सुवर्ण मुद्रायें कोषा नामक वेश्याके घर पर रह कर विलासमें उड़ाने वाले और तत्काल संयम ग्रहण कर उसीके घर पर आकर चातुर्मास रहनेवाले श्रीस्थूलभद्रका और अभया नामक रानी द्वारा किये हुये विविध प्रकारके अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करते हुये लेशमात्र मनसे भी क्षोभायमान न होनेवाले सुदर्शन सेठ वगैरहके द्वष्टान्त बहुत ही प्रसिद्ध हैं। "कषायादि पर विजय" कषायादि दोषों पर विजय प्राप्त करनेका यही उपाय है कि जो दोष हो उसके प्रतिपक्षी का सेवन करना। जैसे कि १ क्रोध-क्षमासे जीता जा सकता है, २ मान-मार्दवसे जीता जा सकता है, ३ मायाआर्जवसे जीती जासकती है, ४ लोभ-संतोषसे जीता जा सकता है। ५ राग-वैराग्य से जीता जा सकता है, ६ द्वेष-मैत्रीसे जीता जा सकता है, ७ मोह-बिवेकसे जीता जा सकता है, ८ काम-स्त्री शरीरको अशुचि भावनासे जीता जा सकता है, ६ मत्सर दूसरेकी सम्पदा के उत्कर्ष के विषयमें भी चित्तको रोकनेसे जीता जा सकता है, १० विषय-मनके संवरसे जीते जा सकते हैं, ११ अशुभ-मन, वचन, काया, तीन गुप्तिसे जीता जा सकता है, १२ प्रमाद-अप्रमादसे जीता जा सकता है, और १३ अविरती व्रतसे जीती जा सकती है। इस प्रकार तमाम दोष सुख पूर्वक जीते जा सकते हैं। यह न समझना चाहिये कि शेषनाग के मस्तकमें रही हुई मणि ग्रहण करनेके समान या अमृत पानादिके उपदेशके समान यह अनुष्ठान अशक्य है। बहुतसे मुनिराज उन २ दोषोंके जीतनेसे गुणोंकी संपदाको प्राप्त हुये हैं इस पर दृढ़ प्रहारी, चिलाति पुत्र रोहिणीय चोर वगैरह के दृष्टान्त भी प्रसिद्ध ही हैं। इस लिये कहा भी है गता ये पूज्यत्वं प्रकृति पुरुषा एव खलुते ॥ जना दोषस्त्यागे जनयत समुत्साहमतुलं ॥ ,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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