SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण जथ्थ बावोस महअच्छइया निनावारो सबथ्य करेइ” जहाँ विश्राम हो अथवा जहां निर्व्यापार होफुरसद हो वहां सर्व स्थानोंमें सामायिक करे अथवा “जाहे खणियो ताहे करेइ तोसे न भज्जइ” जब समय मिले तब करे तो सामायिक भंग नहीं होता" ऐसा चूर्णिका बचन है । इस प्रमाण से 'सामाइय उभय समझ' समायिक दोनों संध्या करना” यह बचन सामायिक नामकी श्रावक की प्रतिमा अपेक्षित है और यह वहां ही उस कालके नियम के समय ही सुना जाता है" (जब कोई श्रावक प्रतिमा प्रतिपन्न हो तब उसे दोनों समय सुबह शाम अवश्य सामायिक करना ही चाहिये। इस उद्देश्यसे यह बचन समझना ) अनुयोग द्वार सूत्रमें स्पष्टतया श्रावक को भी प्रतिक्रमण करना कहा है, जैसे कि: "समणेवा समणीवा सावएवा साविसावा तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिए तत्तिमममा. साए तदट्ठोवउत्ते तदपि प्रकरणे तम्भावणभाविए उभयो काल मावस्सयं करेइ ।। साधु या साध्वी, श्रावक या श्राविका, तद्गत् चित्त द्वारा; तद्गत मनो द्वारा, तद्गत लेश्या द्वारा, तद्गत अध्यवसाय द्वारा और तद्गत तीब्र अध्यवसाय द्वारा, उसके अर्थमें सोपयोगी होकर चबला मुहपत्ति सहित (श्रावक आश्रयो ) उसकी ही भावना भाते हुये उभय काल अवश्य आवश्यक करे।” तथा अनुयोग द्वारमें कहा हैसमणेण सावएणय । अवस्स कायबयं हवइ जम्हा ॥ अन्तो अहो निसस्सय । तंम्हा प्रावस्सयं नाये ॥ "साधु और श्रावक के लिए रात्रि और दिनका अवश्य कर्तव्य होने से वह आवश्यक कहलाता है" इसलिये साधुके समान श्रावक को भी श्रीसुधर्मा स्वामी आदि से प्रचलित परम्परा के अनुसार प्रतिक्रमण करना चाहिये । मुख्यता से दिन और रात्रिके किये हुये पापकी विशुद्धि करनेका हेतु होनेसे महाफल दायक है। इसलिये हमने कहा है किः-- अघनिष्क्रमणं भावद्विपदाक्रमणं च सुकृतसंक्रमणं ॥ मुक्तेः क्रमणं कुर्यात् । द्विः प्रतिदिवसं प्रतिक्रमणं ॥ पाप का दूर करना, भाव शत्रुको वश करना, सुकृत में प्रवेश करना, और मुक्ति तरफ गमन करना, ऐसा प्रतिक्रमण दो दफे करना चाहिये। सुना जाता है कि दिल्ली में किसी श्रावक को दो दफा प्रतिक्रमण करने का अभिग्रह था। उसे किसी राज्य वापारी कार्यके कारण बादशाह ने हथकडियां डालकर जेलमें डाल दिया। कई लंघन हुये, तथापि संध्या समय प्रतिक्रमण करने के लिये चौकीदार को सुवर्ण मोहोरें देना मंजुर करके दो घड़ी हाथकी हथकड़ियां निकलवा कर उसने प्रतिक्रमण किया। इस प्रकार एक महीना व्यतीत होनेसे उसने प्रतिक्रमण के लिये साठ सुवर्ण मुहरें दी। उसके नियमकी दृढ़ना सुन कर तुष्टमान होकर बादशाह ने उसे छोड़ दिया। पहले के समान उसे सन्मान दिया, इस प्रकार प्रतिक्रमण के विषयमें उद्यम करना ।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy