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________________ श्राद्धविधि प्रकरण चरिम करनेमें आ जानेसे मेरे रात्रिभोजन का त्याग है, ऐसा स्मरण करा देनेसे उसे भी दिवसचरिम करना योग्य है ऐसा आवश्यक की लघुवृत्ति में लिखा है। यह दिवसचरिम का प्रत्याख्यान जितना दिन बाकी रहा हो उतने समयसे ग्रहण किया हुआ चोविहार या तिविहार सुखसे बन सकता है और यह महालाभकारी है। इससे होनेवाले लाभ पर निम्न दृष्टान्त दिया जाता है। दशार्णपुर नगरमें एक श्राविका संध्या समय भोजन करके प्रतिदिन दिवसचरिम प्रत्याख्यान करती थी, उसका पति मिथ्यात्वी होनेसे “शामको भोजन करके रात्रिमें किसीको भोजन न करना यह बड़ा प्रत्याख्यान हैं, वाह! यह बड़ा प्रत्याख्यान !" ऐसा बोल कर हंसी करता था। एक दिन उसने भी प्रत्याख्यान लेना शुरू किया, तब श्राविकाने कहा कि आपसे न रहा जायगा, आप प्रत्याख्यान न लो, तथापि उसने प्रत्याख्यान लिया, रात्रिके समय सम्यकदृष्टि देवी उसकी बहिनका रूप बना कर उसकी परीक्षा करने, या शिक्षा करनेके लिये, घेवरकी सीरनी बांटने आई और उसे घेवर दिये। श्राविका स्त्रीने उसे बहुत मना किया परन्तु रसनाके लालचसे वह हाथमें लेकर खाने लगा, तब देवीने उसके मस्तकमें ऐसा मार मारा कि जिससे उस की आंखोंके डोले निकल पड़े: उस श्राविका स्त्रीने इससे मेरा या मेरे धर्मका अपयश होगा यह समझ कर कायोत्सर्ग कर लिया। तब शासन देवीने आकर उस श्राविकाके कहनेसे वहांपर नजदीक में ही कोई बकरे को मारता था उसकी आँखें लाकर उसकी आंखोंमें जोड़ दी इससे वह एडकाक्ष नामसे प्रसिद्ध हुवा। यह प्रत्यक्ष फल देखनेसे वह भी श्रावक बना। यह कौतुक देखनेके लिए दूसरे गांवसे बहुतसे लोक आने लगे, इससे उस गांवका भी नांव एडकाक्ष होगया। ऐसा प्रत्यक्ष चमत्कार देख कर अन्य भी बहुतसे लोक श्रावक हुए। फिर दो घड़ी दिन बाकी रहे बाद और अर्ध सूर्य अस्त होनेसे पहिले फिरसे तीसरी दफा विधिपूर्वक देवकी पूजा करे, "द्वितीय प्रकाश" - "रात्रि कृत्य 'पडिक्कप इत्ति' श्रावक साधुके पास या पौषधशालामें यतना पूर्वक प्रमार्जन करके सामायिक लेने वगैरहका विधि करके प्रतिक्रमण करे। इसमें प्रथमसे स्थापनाचार्य की स्थापना करे, मुख वस्त्रिका रजोहाण आदि धर्मके उपकरण ग्रहण करने पूर्वक सामायकका बिधि है। वह बन्दिता सूत्रकी वृत्तिमें संक्षेपसे कथन करदेने के कारण यहांपर उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं दीख पड़ता। सम्यक्त्वादि सर्वातिचार विशुद्धिके लिए प्रति दिन सुबह और शाम प्रतिक्रमण करना चाहिए । भद्रक स्वभाव वाले श्रावकको अभ्यास केलिए अतिवार रहित षट् आवश्यक करना तृतीय वैद्यकी औषधीके समान कहा है । ऋषियोंका कथन है किसपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स यपच्छिमस्सय जिणस्स, ममिझमगाण जिणाणं, कारण जाए पढिकमणं ॥१॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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