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________________ श्राद्धविधि प्रकरण अतिथी, याचक और दुखी जनका भक्तिसे या अनुकंपासे शक्तिपूर्वक औचित्य संभाल कर उनका मनोरथ सफल करके महात्मा पुरुषोंको भोजन करना युक्त है । आगममें भी कहा है कि:बदार पहावेई । भुजमाणो सुसावच्यो । अस्णुकंपा जिणिदेहिं । सद्वाणं न निवारिश्रा ॥ १ ॥ सुधावक भोजनके समय दरवाजा बंद न करावें क्योंकि वीतराग ने श्रावकको अनुकंपा दान देनेकी मनाई नहीं की। १५० दट्ठण पाणि निवहं । भीमे भवसायरंमि दुरूखत' ॥ 1 श्रविशेष श्रोणुकंप | हावि सामध्यम कुपई ॥ २ ॥ भयंकर भवरूप समुद्र में दुःखार्त प्राणि समूहको देख कर शक्तिपूर्वक दोनों प्रकारसे - द्रव्य और भावसे अनुकंपा विशेष करें । यथा योग्य अन्नादिक देनेसे द्रव्यसे अनुकंपा करे और जैनधर्म के मार्ग में प्रवर्तना से भाव से अनुकम्पा करे । भगवती सूत्रमें तुरंगीया नगरीके श्रावक वर्णनाधिकार में “अवंगुअ" दुवारा ऐसे I विशेषण द्वारा भिक्षुकादि के प्रवेशके लिए सर्बदा खुला दरवाजा रखना कहा है। दीनोंका उद्धार करना यह तो श्री जिनेश्वर देवके दिये हुये सांवत्सरिक दानसे सिद्ध ही है। विक्रमादित्य राजाने भी पृथिवीको ऋणमुक्त करके अपने नामका संवत्सर चलाया था। अकालके समय दीन हीनका उद्धार करना विशेष फलदायक है इस लिये कहा है कि: विए सिख परिखा । सुहड परिख्खाय होइ संगामे ॥ बसणे मित्त परिख्ख्या । दारा परिखाय दुभिख्ये || ३ ॥ विनय करनेके समय शिष्य की परीक्षा होती है, सुभटकी परीक्षा संग्रामके समय होती है, मित्रकी परीक्षा कष्टके समय होती है, और दुष्कालके समय दानीकी परीक्षा होती है । विक्रम संवत् १३१५ में महा दुर्भिक्ष पड़ा था, उस समय भद्रेश्वर निवासी श्रीमाल जातिवाले जगशाह ने ११२ दानशाला खुलवाकर दान दिया था। कहा है किः हम्मीरस्य द्वादश । बीसलदेवस्य चाष्ट दुर्भिक्षे ॥ त्रिसप्त सुरभागे । मूढसहस्रान् ददो जगहू ॥ जगडुशाह ने दुर्भिक्षके समय हमारे राजाको बारह हजार मूड़ा बिषलदेव राजाको आठ हजार मूडा और बादशाहको २१ हजार मूडा धान्य दिया था। उस समय पड़े हुये दुष्कालमें जगडुशाह ने उपरोक्त राजाओं की मार्फत उपरोक्त संख्या प्रमाण धान्य दुष्काल पीडित मनुष्योंके भरण पोषण के लिये भिजवाया था इसी तरह अणहिल्लपुर पाटनमें एक सिंहथ नामा सुनार था। उसके घरमें बड़ी भारी ऋद्धि सिद्धि 1 थी । उसने विक्रम संवत् १४२६ में आठ मन्दिरोंके साथ एक बड़ा संघ लेकर श्री सिद्धाचल की यात्रा कर एक भविष्यवेत्ता ज्योतिष से यह जामकर कि दुष्काल पडेगा प्रथवसे ही दो लाख मन अन्नका संग्रह किया हुवा था। जिससे बहुत ही लक्ष्मी उपार्जन की परन्तु उसमेंसे २४ हजार मन अन्न दुष्काल पीडित दोन हीन पुरुबोंको बांट दिया था। एक हजार बांध छुडाये थे ( डाकू लोगों द्वारा पकडे हुये लोगोंको बंध कहते हैं ) बहुतसे मन्दिर बंधवाये, जीर्णोद्धार कराये तथा पूज्य श्री जयानंदसूरि और श्रीदेवसुन्दरि सूरिको आवार्य
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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