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________________ श्राद्धविधि प्रकरण दौड़ आया। फिर उस विद्याधर ने रत्नसार कुमारको धमका कर कहा कि अरे ! कुमार! तू सत्वर यहांसे दूर भाग जा, अन्यथा यहां पर आज कुछ नया पुराना होगा। हे अनार्य ! अरे निर्लज्ज, निरमर्याद ! अरे निरंकुश ! अरे मेरे जीवितके समान और सर्वस्व के तुल्य हंसीको गोदमें ले कर बैठा है, इससे क्या तू तेरे मनमें लज्जित नहीं होता ? तू अभी तक भी मेरे सामने निःशंक, निर्भय होकर ठहरा हुआ है ? सचमुच ही हे मूर्खशिरोमणि ! तू सदाके लिये दुःखी बन बैठेगा। ___ इस प्रकारके कटु बचन सुन कर सशंक तोतेके देखते हुए, कौतुक सहित मोरके सुनते हुए, कमलके समान नेत्र वाली, त्रासित हुई उस हंसीके सुनते हुए कुमार हस कर बोलने लगा अरे मूर्ख! तू मुझे प्यर्थ ही भय बतानेका उद्यम क्यों करता है ? तेरे इस भयानक दिखावसे कोई बालक डर सकता है परन्तु मेरे जैसा पराक्रमी, कदापि नहीं डर सकता। ताली बजानेसे पक्षी ही डर कर उड़ जाते हैं, परन्तु बड़े नगारे बजने पर भी सिंह अपने स्थान परसे डरकर नहीं भागता। यदि कल्पान्तकाल भी आ जाय तथापि शरणागत आई हुई इस हंसोको म कदापि नहीं दे सकता। शेष नागकी मणिके समान न प्राप्त होने योग्य वस्तुको ग्रहण करनेकी इच्छा रखनेवाले तुझे धिक्कार हो! इस हंसीकी आशा छोड़कर तू इसी वक्त यहांसे दूर चला जा। अन्यथा इन तेरे दस मस्तकोंका दस दिशाओंके स्वामी दिक्पालों को बलिदान कर दूंगा। इस वक्त रत्नसार के मनमें यह विचार पैदा हुआ कि यदि इस समय मुझे कोई सहाय दे तो मैं इसके साथ युद्ध करूं। यह विचार करते समय तत्काल ही उस मयूर अपना स्वाभाविक दिव्यरूप बना कर विविध प्रकारके शस्त्र धारण कर कुमारके समीप आ खड़ा हुआ। - अब वह चंद्रचूड़ देवता कुमारसे कहने लगा कि हे कुमारेन्द्र ! तू यथारुचि युद्ध कर मैं तुझे शस्त्र पूर्ण करूगा और तेरी इच्छानुसार तेरे शत्रुका नाश करूंगा। चंद्रचूड देवके बचन सुन कर जिस प्रकार केसरी सिंह सिकारके लिये तैयार होता है और जैसे गरूड अपनी पांखोंसे बलवान् होकर दुःसह्य देख पड़ता है वैसेही रत्नसार कुमार अति उत्साह सहित शत्रुको दुःसह्याकारी हो इस प्रकारका स्वरूप धारण करता हुआ हर्षित हुआ। तिलकमंजरी के कर कमलोंमें उस हंसीको समर्पण कर तैयार हो रत्नसार अपने घोड़े पर सवार हो गया। चंद्रचूड ने उसे तत्काल ही गांडीव नामक धनुष्य की शोभाको जीत लेनेवाला बाणों सहित एक धनुष्य समर्पण किया। उस चंद्रचूड़ देवताकी सहायता से महा भयंकर और अतुल बल वाले विद्याधर को अन्तमें रत्नसार ने पराजित किया। चंद्रचूड़ देवताके दिव्य बलके सामने उस प्रपंची विद्याधर की एक भी विद्या सफल न हो सकी। उस अजय्य शत्रुको जीत कर हर्षित हो रत्नसार कुमार चंद्रचूड देवता सहित मन्दिरमें गया। कुमारके पराक्रम को देख कर तिलकमंजरी उल्लसित और रोमांचित होकर बिवारने लगी कि यदि मेरी बहिनका मिलाप हो तो पुरुषोंमें रत्नके समान हम इस कुमारको ही स्वामीतया स्वीकार करके अपना अहो. भाग्य समझे। इस प्रकार हर्ष, लजा और चिन्तापूर्ण तिलकमंजरी के पाससे बालिकाके समान उस हंसीको कुमारने अपने हाथमें धारण की। तब हंसी बोलने लगी हे कुमारेन्द्र ! हे धीरवीर शिरोमणि आप
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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