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________________ श्राद्धविधि प्रकरण सकूगी ? इस प्रकार विलाप करती हुई जल रहित मछलीके समान वह जमीन पर तड़फने लगी। इससे राजाको अत्यन्त दुःख होने लगा, इतना ही नहीं परन्तु महाराणी भी इस समाचारसे अति दुःखित हो वहां पर आकर रुदन करने लगी, और अनेक प्रकारसे दुर्दैवको उपालम्भ दे करुणा-जनक विलाप करने लगी। इस दृश्यसे अशोकमंजरी एवं तिलकमंजरी की सखियाँ तथा अन्य स्त्रियां भी दुःखित हो हृदय द्रावक रुदन करने लगीं। मानो इस दुःखको देखनेके लिये असमर्थ होकर ही सूर्य देव अस्त होगये। अब उस अशोक वनमें पूर्व दिशा की ओरसे अन्धकार का प्रवेश होने लगा। अभी तक तो अन्तःकरण में ही शोकने लोगोंको ब्याकुल किया हुआ था परन्तु अब तो अन्धकार ने आकर बाहरसे भी शोक पैदा कर दिया। (पहले अन्दर हीमें मलिनता थी परन्तु अब बाहरसे भी अन्धकार होगया। शोकातुर मनुष्यों पर मानो कुछ दया लाकर ही कुछ देर बाद आकाश मण्डलमें अमृतकी वृष्टि करता हुआ चन्द्रमा विराजित हुआ। जिस प्रकार नूतन मेघ मुरझाई हुई लताको सिंचन कर नवपल्लवित करता है उसी प्रकार चन्द्रमाने अपनी शीतल किरणोंकी वृष्टिसे तिलकमंजरी को सिंचन की जिससे वह शान्त हुई, और पिछले प्रहर उठकर मानो किसीदिव्य शक्तिसे प्रेरित कुछ विचार करके अपनी सखियोंको साथ ले वह एक दिशामें चल पड़ी। उसी उद्यानमें रहे हुये गोत्र देवि चक्केश्वरीके मन्दिर के सामने आकर चक्केश्वरी देवीके गलेमें महिमावती कमलकी माला चढाकर अति भक्ति भावसे वह इस प्रकार वीनती करने लगो, हे स्वामिनि ! यदि मैंने आजतक तुम्हारी सच्चे दिलसे सेवा भक्ति, स्तवना की हो तो इस वक्त दीनताको प्राप्त हुई मुझपर प्रसन्न होकर निर्मल वाणीसे मेरी प्रिय बहिन अशोकमंजरी की खबर दो । और यदि खबर न दोगी तो हे माता ! मैं जब तक इस भवमें जीवित हूं तब तक अन्न जल ग्रहण न करूंगी। ऐसा कह कर वह देवीका ध्यान लगाकर बैठगई। । उसकी शक्ति पूर्वक भक्तिसे, और युक्तिसे संतुष्ट हृदया देवी तत्काल उसे साक्षात्कार हुई, एकाग्रता से क्या सिद्ध नहीं हो सकता ? देवी प्रसन्न होकर कहने लगी हे कल्याणी! तेरी बहिन कुशल है, हे वत्सा! तू इस बातका चित्तमें खेद न कर ! और सुखसे भोजन ग्रहण कर । तथा आजसे एक महीने बाद दैवयोगसे तुझे अशोकमंजरी की खबर मिलेगी और उसका मिलाप भी तुझे उसी दिन होगा। यदि तेरे दिलमें यह सवाल पैदा हो कि कब ? किस तरह ? कहां पर मुझे उसका मिलाप होगा? इस बातका खुलासा मैं तुझे स्वयं ही कर देती हूं, तू सावधान होकर सुन । इस नगरीके पश्चिम देशमें यहाँसे अति दूर और कायर मनुष्य से जहां पर महा मुष्किलसे पहुंचा जाय ऐसे बड़े वृक्ष, नदी, नाले, पर्वत और गुफाओंसे अत्यन्त भयंकर एक बड़ी अटवी है। जहांपर किसी राजा महाराजा की आज्ञा वगैरह नहीं मानी जाती। जिस प्रकार पड़देमें रहने वाली राजाकी रानियां सूर्यको नहीं देख सकतीं वैसे ही वहांकी जमीन पर रहने वाले गीदड़ आदि जंगली पशु भी वहांके ऊंचे ऊंचे वृक्षोंकी सघन घनघटा होनेके कारण सूर्यको नहीं देख सकते । ऐसे भयंकर वनमें मानो आकाशसे सूर्यका विमान ही न उतरा हो इस प्रकारका श्री ऋषभदेवका एक बड़ा ऊंचा मन्दिर है। जिस तरह गगनमण्डल में पूर्णिमाका चन्द्रमण्डल शोभता है वैसे ही चन्द्रकान्त मणिमय श्री ऋषभदेषकी निर्मल मूर्ति शोभती है । कल्पवृक्ष और कामधेनुके समान महिमावती उस मूर्तिकी जब तू पूजा करेगी
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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