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________________ ३२७ AamrARArrrrrrAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAApr श्राद्धविधि प्रकरण कर शान्त हो रहा । फिर इष्ट देवके समान उस नापस कुमारका स्मरण करते हुये घोड़े पर सवार हो पूर्ववत् वहांसे आगे चल पड़ा ।रास्तेमें बन, पर्वत, आगर, नगर, सरोवर, नदी, वगैरह उलंघन करके अविछिन्न प्रयाण द्वारा अनुक्रमसे वे दोनों जने अतिशय मनोहर वगीचेमें पहुंचे। वहां पर गुंजारव करते हुये भ्रमर मानो गुंजारव शब्दसे कुमारको आदर पूर्वक कुशल क्षेम ही न पूछते हों ? इस प्रकार शोभते थे। वहां पर फिरते हुये उन्होंने श्री ऋषभदेव स्वामीका मन्दिर देखा, इतना ही नहीं परन्तु उस मन्दिर पर कम्पायमान होती हुई ध्वजा इस लोक और परलोक एवं दोनों भवमें तुझे इस मन्दिरके कारण सुख मिलने वाला है इसलिये तुझे ग्रहण करनेकी इच्छा हो तो हे रत्नसार! तू यहांपर सत्वर आ, मानो यह विदित करनेके लिये ही वुलाती न हो! इस प्रकारकी ध्वजा भी शोभायमान देख पडी। वहांके एक तिलक नामक वृक्षकी जड़में अपने घोड़ेको बांध कर अनेक प्रकारके फल फूल ले दोनों जने दर्शनार्थ मन्दिरमें गये। विधि और अवसरका जानकार रत्नसार वन्य फल फूलले यथायोग्य पूजा करके प्रभुकी नीचे मुजब स्तुति करने लगा। श्रीमद्य गादि देवाय, सेवाहेवाकिनाकिने, नमो देवाधिदेवाय, विश्वविश्वकदृश्वने ॥१॥ . परमानन्दकंदाय, परमार्थकदर्शिने, परब्रह्मरूपाय, नमः परमयोगिने ॥२॥ परमात्मस्वरूपाय, परमानन्द दायिने, नमस्त्रिजगदीशाय, युगादीशाय तायिने ॥३॥ योगिनामप्यगम्याय, प्रणम्याय महात्मनं, नमः श्री संभवे विश्व, प्रभवस्तु नमोनमः ॥४ । समस्त जगतके सब जीवोंको एक समान कृपा हृष्टिसे देखने वाले, देवताओंके भी पूज्य देव और वाह्याभ्यन्तर शोभनीय श्री युगादि परमात्मा को नमस्कार हो! परमानन्द अनन्त चतुष्टयीके कन्दरूप मोक्ष पदके दिखलानेवाले उत्कृष्ट ज्ञान स्वरूप और उत्कृष्ट योग मय परमात्मा के प्रति नमस्कार हो! परमात्मस्वरूप मोक्षानन्द को देने वाले तीन जगतके स्वामी, वर्तमान चोविसीके आद्य पदको धारन करने वाले और भवि प्राणियोंका भव दुःखसे उद्धार करने वालेके प्रति नमस्कार हो! मन, बचन, कायके योगोंको वश रखने वाले योगी पुरुषों को भी जिसका स्वरूप अगम्य है एवं जो महात्मा पुरुषोंके भी वंद्य है, तथा बाह्याभ्यन्तर लक्ष्मीके सुख संपादन करने वाले, जगत की स्थिति का परिशान कराने वाले परमात्मा के प्रति नमस्कार हो! इस प्रकार हर्षोल्लसित होकर जिनेश्वरदेव भगवान की स्तवना करके रत्नकुमार ने अपना प्रवास सफल किया। और तृष्णा सहित श्री युगादीश के चैत्यके चारों तरफ सुखरूप अमृतका पान कर कष्ट रहित सज्जनताके सुखका अनुभव किया । मन्दिरके अति वर्णनीय हाथीके मुखाकार वाले एक गवाक्षमें बैठकर जैसे देवलोकका स्वामी इन्द्र महाराज ऐरावत नामक हाथी घर बैठा हुआ शोभता है त्यों शोभने लगा। फिर रत्नसार तोतेसे कहने लगा कि उस तापसकुमार की आनन्द दायक खबर हमें अभीतक भी क्यों नहीं मिलती ? तोतेने कहा कि है मित्र! तू अपने मनमें जरा भी खेद न कर, प्रसन्न रह आज हमें ऐसे अच्छे शकुन हुये हैं कि जिससे तुझे आज ही उसका समागम होना चाहिये। इतनेमें ही एक मनोहर सुन्दर मोर पर सवारी की हुई सर्व प्रकारके दिव्यालंकारों से सुशोभित और अपनी दैविक शोभासे दशों दिशाओंको दैदीप्यमान करती हुई
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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