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________________ श्राद्धविधि प्रकरण पालके पास जाकर इस बातकी चुगली की कि आपका दिया हुवा धन अम्बडने याचकोंको दे दिया, तब क्रोधित होकर अम्बड़ मन्त्रीको बुलाकर धमकाते हुये राजाने कहा कि, अरे ! तू मुझसे भी बढ़कर दानेश्वरी हो गया? उस समय हाथ जोड़ कर अम्बड मन्त्री बोला कि स्वामिन् ! आपके पिता तो सिर्फ बारह गांवके हो मालिक थे और मेरे स्वामी आप तो अठारह देशके अधिपति हैं। तब फिर जिसका स्वामी अधिक हो उसका नौकर भी अधिक हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? अवसर उचित इतना बचन बोलते ही प्रसन्न होकर राजाने उसे पुत्रपद पर स्थापन कर पहलेसे भी दुगना इनाम दिया । इसलिये अवसर पर उचित बचन महान् लाभकारी होता है । अतः कहा है किः - दाने याने माने, शयनासनपानभोजने वचने, सर्वत्रान्यत्रापि हि, भवति महारसमयः समयः ॥ दान देनेमें, वाहन पर चढ़नेमें, मान करने में, शयन करने में, बैठनेमें, पानी पीनेमें, भोजन करने में, वचन बोलनेमें, और भी कितने एक स्थानमें यदि अवसर हो तो ही वह महारसमय मालुम होते हैं। इसलिये समयको जानना यह भी एक औचित्यका बीज है, इस कारण कहा है किः ___ोचित्यमेकमेकत्र, गुणानां कोटिरेकतः॥ विषायते गुणग्रामः औचित्य परिवर्जितः ॥ यदि करोड़ गुन एक तरफ रख्खे जाय और औचित्य दूसरी तरफ रक्खा जाय तो दोनों समान ही होते हैं, क्योंकि जहां औचित्य नहीं ऐसे गुणका समुदाय भी विषमय मालूम होता है। इसी कारण सर्व प्रकारकी अनुचितता का परित्याग करना चाहिये। जो कार्य करनेसे मूर्ख कहलाया जाय तब उसे अनुचित समझ कर त्याग देना उचित है। इस विषय पर मूर्ख शतक बड़ा उपयोगी है। यद्यपि वह लौकिक शास्त्रोक्त है तथापि विशेष उपयोगी होनेके कारण यहां पर उद्धत किया जाता है। "मूर्खशतक" श्रुणु मूर्खशतं राजं स्तं तं भावं बिवर्जय येन त्वं राजसे लोके, दोषहीनो मणिर्यथाः हे राजन् ! मूर्खशतक सुनो ! और मूर्ख होनेके कारणोंका त्याग कर कि जिससे तू दोष रहित मणिके समान शोभाको प्राप्त होगा। सामर्थ्य विगतोद्योगः स्वश्लाध माज्ञपर्षदि, वेश्या वचसि विश्वासी, प्रत्ययो दम्भ डंबरः ॥२॥ १ शक्ति होने पर भी जो उद्योग न करे २ पंडित पुरुषोंकी सभामें अपने ही मुखसे अपनी प्रशंसा करे । ३ वेश्याके वचन पर विश्वास रख्खे, ४ कपट मालूम हो जाने पर भी उसका विश्वास रक्खें, वह मूर्ख हैं। धूतादि विराबदाशः, कृष्याघायेषु संशयी,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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