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________________ ३०४ श्राद्धविधि प्रकरण द्विजन्मनः क्षमा मातुः। द्वषः प्रेम पणस्त्रियम्। नियोगिनश्च दाक्षिण्य । मरिष्टानां चतुष्टय ॥ बिप्र पर क्षमा, माता पर द्वष, गणिका पर प्रेम और सरकारी लोगों पर दाक्षिष्यता रखनेसे दुःखा. कादि चतुष्टय मिलता है। अर्थात् ये चार कारण दुःख दिये बिना नहीं रहते।। राजदरबारी लोग ऐसे होते हैं कि दूसरोंका देना तो दूर रहा परन्तु कोई वैसा कारण उपस्थित करके लेनेवालों या उनके सगे सम्बन्धियों को फसा देते हैं कि जिससे पूर्वोपार्जित धन भी उसमें खर्च हो जाय । इस लिए नीतिशास्त्रमें कहा है कि: उत्पाद्य कृतिमान्दोषान्। श्वनी सर्वत्र वाध्यते । निर्धनः कृतदोषोपि। सर्वत्र निरुपद्रवः॥ नवीन बनावटी दोष उत्पन्न करके भी धनवानको पीड़ा दी जाती है, परन्तु निर्धन दोष करनेवाला होने पर भी सब जगह निरुपद्रव ही रहता है। यदि सामान्य क्षत्रि हो तथापि जब उसके पास दिया हुवा धन वापिस मांगा जाता है तब वह तलवार पर नजर डालता है, तब फिर जो राज मान्य हो वह बल बतलाये बिना कैसे रहेगा। उसमें भी यदि कोई क्रोधी हो तो उसका तो कहना ही क्या है ? इसलिये दरबारी राजकीय लोगोंके साथ द्रव्य लेन देनका सम्बन्ध रखनेसे बड़ी हरकत उपस्थित हो जाती है अतः उनके साथ लेन देन रखना मना किया है। इस प्रकार समान बृत्ति वाले नागरिक लोगोंके साथ विचार करके वर्ताव करना, क्योंकि व्यापारियों में ऐसे बहुत होते हैं कि जो लेने समय गरीब बनकर लेते हैं परन्तु पीछे देते समय सामना करते हैं और राजदरबार तरफका भय बतलाते हैं एयं परुप्पहं नारयाण । पारण समुचिमाचरणं॥ परतिथ्यिप्राण समुयित्र । महकिपि भणामि लेसेण ॥ प्रायः इस प्रकार नागरिक लोगोंका पारस्परिक उचितावरण बतलाया अब परतीथीं अन्य दर्शनी लोगोंका उचित भी कुछ बतलाते हैं। एएसिं तिथ्यिमाण। भिख्खट्ठ मुवठिाण निगेहे ॥ कायव्व मुचिम किच्छ । विसेसेना राय महिमाणं ॥ पर तीर्थीके विषयमें यही उचित है कि यदि वह भिक्षा लेने के लिये घर पर आवे तो उसे दानादि देना और यदि राज मान्य हो तो उनसे विशेष मान सन्मान देकर भी उसका उचिताचरण संभालना। जइविन मणमिभत्ती। न पखवाभोप तग्गय गुणेसु ॥ उचिर्भ गिहागरसु । तहवि धम्मो गिहिण इमो॥ यद्यपि परतीर्थी पर कुछ भक्ति नहीं है एवं उनमें रहे हुए गुण पर भी कुछ पक्षपात नहीं तथापि गृहस्थका यह आचार है कि अपने घर पर आये हुएका उचित सत्कार करे। .
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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