SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३०१ इसका समुचित बतलाते हैं, सुखके कार्यमें या दुःखके कार्यमें एकचित्त होना याने दूसरों के साथ सहानुभूति रखना, आपत्तिके समय या महोत्सव के समय भी एकचित्त होना। यदि इस प्रकार एक समान परस्पर बर्ताव न रखा जाय तो राज दरवारी लोग जैसे गीदड़ मांस भक्षणके लिए दौड़धूप करता है वैसे ही व्यापार में या किसी अन्य बातमें पारस्परिक अनबनाव होते ही दोनों पक्षको विपरीत समझा कर महान खर्चके गढ़ में उतारते हैं। इसलिये परस्पर सब मिल कर रहना और संप सलाहसे प्रवृत्ति करना योग्य है । कायव्वं कब्जेविहु । नइक्कमिक्केण दसणं पहुणो। कज्जो न मंतभेनो। पेसुन्न परिहरे सव्वं ॥ जिस समय कोई राजद्वारी काम आ पड़े या अन्य कोई कार्य आ उपस्थित हो उस वक्त एक दम उतावल में साहस करके कार्य न कर डालना। राज दरवार में भी एकला न जाना। पांच जनोने मिल कर जो विचार निश्चित किया हो वह अन्यत्र प्रगट न करना, और किसीकी निंदा चुगली न करना। यदि उतावल में आकर मनुष्य एकला ही कुछ काम कर आया हो तो उस कार्यकी जवाबदारी और सर्व भार उस मनुष्य पर ही आ पड़ता है या दूसरे लोगोंके मनमें भी यही विचार आता है कि इसे एकले को ही मान बड़ाई चाहिये, इस लिए लेने दो! इस विचारसे जब अन्य सब जुदे पड़ जायँ, तब अकेलेको उलझन में आनेका सम्भव है। यदि वहुतसे मनुष्य मिलकर और उनमें एक जनेको आगेवान बना कर कार्य शुरु किया हो तो वह कार्य यथार्थ रीतिसे सुगमतया परिपूर्ण होता है । यदि एक जनेको विना आगेवान किये ही पांच सौ सुभटों के समान सबके सब मान बडाईकी आकांक्षा रखकर कार्यके लिये जायें या कोई कार्य शुरु करें, तो अवश्यमेव उसमें बिघ्न पड़े विना न रहेगा। किसी भी कार्यमें अमुक एक मनुष्यको आगेवानी देकर अन्य सब परस्पर संप रखकर कार्य शुरू करें तो अवश्यमेव उससे लाभ ही होता है। "सभी मानबड़ाई इच्छने वाले पांचसौ सुभटोंकी कथा" कोई एक पांचसों सुभटोंका टोला कि जो परस्पर विनय भावसे सर्वथा रहित थे और सबके सब अपने आपको सबसे बड़ा समझते थे एक समय वे किसी राजाके यहां नौकरी करनके लिये गये। नौकरीकी याचना करने पर राजाने दीवानको आज्ञा दी कि इनकी योग्यतानुसार मासिक वेतन देकर इन्हें भरती कर लो। दीवानने उन लोगोंकी योग्यता जाननेके लिए उन्हें एक बड़ी जगहमें ठहराया और सन्ध्याके समय उनके पास एक चारपाई और एक विछौना भेजा; इससे अभिमानी होनेके कारण उनमें परस्पर यह विवाद होने लगा कि, इस चारपाई पर कौन सोवेगा ? उनमें से एक बोला-"यह चारपाई मेरे लिये आई है। इसलिए इस पर मैं सोऊंगा" दूसरा बोला कि नहीं, मेरे लिये आई है मैं सोऊंगा, इसी प्रकार तीसरा चौथा गर्ज सबके सब आधी रात तक इसी बात पर लड़ते रहे। अन्तमें जब वे पारस्परिक विवादसे कंटाल गये तब उस चारपाई को बीचमें रख कर उस चारपाई की तरफ पैर रख कर चारों तरफ सो गये । परन्तु उन्होंने अपनेमें से किसी एकको बड़ा मान कर चारपाई पर न सोने दिया। यह बात दीवानके नियुक्त किये हुए गुप्त
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy