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________________ श्राद्धविधि प्रकरण - इत्यादि सगे सम्बन्धियों का उचितावरण बतलाया, भब धर्माचार्य धर्म गुरुंका उचित बतलाते है उन्हें भक्ति बहुमान पूर्वक सुबह, दुपहर को, और सन्ध्या समय नमस्कार करना अन्तरंग मनसे प्रीति और बचनसे बहुमान, एवं कायासे सन्मान जो किया जाता है, उसे भक्ति कहते हैं। : . तहसिम नीइए, आवस्सय पमुह कीच करणं च, धम्मोवएस सवणं, तदंतीए सुद्ध सदाए, गुर्वादिकी बतलाई हुई रीति मुजक आवश्यक प्रमुख धर्म कृत्य करने और शुद्ध श्रद्धा पूर्वक वहां के पांच धर्म श्रवण करना। आएसं बहुमन्नई इमेसि पणसावि कुणइ कायच्वं; रुभई अवन्नवाया, थुइमायं पयडाइ सयाकि, गुरुकी आज्ञाको बहु मान दे, मनसे भी गुरुकी आसातना न करे, यदि कोई अन्य अवणवाद बोलता हो तो उसे रोकनेका प्रयत्न करे, परन्तु सुनकर बैठ न रहना। क्योंकि अन्य भी किसी महान् पुरुषका अपवाद न सुनना चाहिये तब फिर धर्भ गुरुका अपवाद सुनकर किस तरह रहा जाय। यदि गुरुका अपवाद सुनकर उसका प्रतिवाद न करे तो दोषका भागी होता है। स्वयं गुरुके समक्ष और उनके परोक्ष गुणोंका वर्णन करता रहे, क्योंकि गुप्त गुणवर्णनन करने में पुण्यानुबन्धी पुण्य प्राप्त होता है। नहवई छिद्दप्पेही, सुहिव्व अणुअत्तए सुहदुहेसु । पडिणीस पच्चवायं, सव्व पयत्तण वारेई॥ गुरुके छिद्र न देखे, गुरुके सुखदुःखों में मित्रके समान आवरण करे, गुरुके उपकार नहीं मानने वाले द्वेषी मनुष्यको प्रयत्न द्वारा निवारण करें। र, यदि यहां पर कोई यह शंका करे कि, श्रावक लोग तो गुरुके मित्र समान ही होने चाहिये, फिर वे अप्रमादिक और निर्मल गुरुके छिद्रान्वेषी किस तरह हो सकते हैं ? इसका उत्तर यह है कि, धर्म प्रिय श्रावक लोग यद्यपि गुरुके मित्र समान ही होते हैं तथापि भिन्न २ प्रकृतिवाले होनेके कारण जैसा जिसका परिणाम हो उसका वैसा ही स्वभाव होता है; इससे निर्दोषी गुरुमें भी वैसे मनुष्यको दोषावलोकन करनेकी बुद्धि हुआ करती है। इसलिए स्थानांग सूत्रमें भी कहा है कि, "सौतके समान भी श्रावक होते हैं," इसलिये जो गुरुका द्वेषी हो उसे निवारण करना ही चाहिये, शास्त्रमें भी कहा है कि: साहूणा चेइमाणय, पडिणीयं तह प्रवन्नवायं च। जिस पवयणस्स अहियं, सव्वथ्यागेल. वारेई॥ जो साधुका, मन्दिरका, प्रतिमाका और जिनशासन का द्वेषी हो या अवर्णवाद बोलनेवाला हो उसे सर्व शक्तिसे निवारण करे।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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