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________________ श्राद्धविधि मकरण वाम के सन्मुख बैठा । उस समय केवलनानी महात्मा ने क्लेशमाशिनी अमृतसमान देशना दी । देशना के अंतमें विनयपूर्षक राजा पूछने लगा कि हे भगवान् ! इसी शुकराज कुमारकी वाचा बंद क्यों हुई ? केवलज्ञानधारी महात्मा ने उत्तर दिया कि 'यह बालक अभी बोलेगा"। अमृत के समान केवलज्ञानी का वचन सुनकर प्रस. बता पूर्वक राजा बोला कि प्रभो ! यदि कुमार बोलने लगे तो इससे अधिक हमें क्या चाहिए ? केवलीभगवान् बोले कि "हे शुकराम ! इन सबके देखते हुए तूं हमें वंदनादिक क्यों नहीं करता ? इतना सुनते ही शुकराज ने उठकर सर्वजनसमक्ष केवलीभगवान् को उच्चार पूर्वक खमासमण देकर विधिपूर्वक वंदन किया। यह महा वमत्कार देख राजा आदि चकित होकर बोलने लगे कि, सबमुच ही इन महामुनिराजकी महिमा प्रगट देखी, क्योंकि जिसे सैकड़ों पुरुषों द्वारा मंत्रतंत्रादिक से भी बुलाने के लिए शक्तिमान न हुये उस इस शुकराजकुमार की मुनिराज के वाक्यामृत से ही चाचा खुल गई। यहांपर चमत्कारिक बनाव देखकर मुग्ध बने हुए मनुष्यों के बीच राजा साश्चर्य पूछने लगा कि खामिन् यह क्या वृत्तांत है ? केवलीभगवान् बोले कि इस बालक के मौन धारन करने में मुख्य कारण पूर्व जन्म का ही है । उसे हे भव्यजनो ! सावधान होकर सुनो,-- शुकराज के पूर्व भव का वृत्तान्त । मलय नामक देशमें पहले एक महिलपुर नामक मगर था। वहां पर आश्चर्यकारी चरित्रवान् जितारी नामा राजा राज्य करताथा । वह राजा इसप्रकार का दानबीर एवं युद्धवीर था कि जिसने तमाम याचकों को अलंकार सहित और सर्व शत्रुओं को अलंकार रहित किया था। चातुर्य, औदार्य, और शौर्यादिक गुणों का तो वह स्थाम ही था। यह एक रोज अपने सिंहासन पर बैठा था उस समय छड़ीदार ने आकर विनती की-हे महाराजेन्द्र ! विजयदेव नामक राजा का दूताआपको मिलकर कुछ बात करने के लिए आकर दरवाजेपर खड़ा है, यदि आपकी आज्ञा हो तो वह दरबारमै आवे । राजाने द्वारपाल को आज्ञा दी कि उसे सत्वर यहां ले आओ। उसवक्त कृत्याकृत्य को जाननेवाला वह दूत राजाके पास आकर विनयपूर्वक नमस्कार कर कहने लगा कि महाराज ! साक्षात् देवलोक समान देषपुर नगर में विजयदेव नामा राजा राज्य करता है कि जो इस समय वासुदेव के समान ही पराक्रमी है। उसकी प्रतिष्ठा प्राप्त प्रीतिमति नामा सती महाराणी ने जैसे राजनीति से शाम, दाम, भेद और दंड ये चार उपाय पैदा होते हैं त्योंही चार पुत्रों को जन्म दिये बाद हंसनी के समान हंसी नामा एक कन्यारत्ल को जन्म दिया है । यह नीति ही है कि, जो वस्तु अरुप होती है वह अतिशय प्रिय लगती है। वैसे ही कई पुनोंपर यह एक पुत्री होने के कारण मातापिता को अत्यंत प्रिय है। यह हंसी बाल्यावस्था को त्यागकर अब आठ वर्ष की हुई उस समय प्रीतिमति महारानी ने एक दूसरी सारसी नामक कन्या को जन्म दिया कि जो साक्षात् जलाशय को शोभायमान करनेवाली सचमुच दूसरी सारसी के समान ही है । पृथ्वी में जो जो सार और निर्मल पदार्थ थे मानो उन्हीं से विधाता ने उनका निर्माण किया हो और जिन्हें किसी की उपमा ही न दी जा सके ऐसी उन दोनों कन्याओं में परस्पर अलौकिक प्रीति है। कामरूप हस्ति को क्रीडायम के समान योक्मवती होनेपर भी हंसी ने अपनी लघुबहिन सारसी के वियोग के भय से अभीतक भी अपना विवाह
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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