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________________ २८० श्राविधि प्रकरण करना तो विशेषतः त्यागने योग्य है। अपनी बड़ाई और दूसरेके अवगुण बोलनेसे हानि ही होती है। कहा है कि विद्यमान या अविद्यमान दूसरेके अवगुण बोलने से मनुष्यको द्रव्य या यश कीर्तिका कुछ भी लाभ नहीं होता, परन्तु उलटी उसके साथ शत्रुता पैदा होती है। जीभकी परवशता से और कषायोंके उदयसे जो मुनि अपनी स्तुति और परकी निन्दा करते हुए श्रेष्ठ उद्यम करता है तथापि वह पांचों प्रकारके महावतों से रिक्तरहित है। दूसरेके गुण होने पर भी यदि उसकी प्रशंसा न की हो, अपने गुणोंकी प्रशंसा की हो, अपने आपमें गुण न होने पर भी उसकी प्रशंसा की हो, तो उससे हानिके सिवाय अन्य क्या लाभ है ? जो मनुष्य अपने मुह मियां मिठ्ठ बनते हैं याने जो स्वयं ही अपनी प्रशंसा करने लग जाते हैं, मित्र लोग उसका उपहास्य करते हैं, बन्धुजन उसकी निन्दा करते हैं, पूजनीय लोग उसकी उपेक्षा करते हैं और माता पिता भी उसे सन्मान नहीं देते। दूसरे प्राणीको पीड़ा पहुंचाना, दूसरेके अवगुण बोलना, अपने गुणोंका वर्णन करना, इतने कारणोंसे करोड़ों भव परिभ्रमण करते हुये और अनेक दुःख भोगते हुए भी प्राणो ऐसे अति नीचकर्मको बांधता है जिसका उदय कदापि न मिट सकेगा। परनिन्दा करने में प्राणीका घात करनेसे भी अधिक पाप लगता है। पाप न करने वाली वृद्धा ब्राह्मणीके समान अविद्यमान दोष बोलनेसे भी पाप आ कर लगता है। सुग्राम नामक ग्राममें एक सुन्दर नामक शेठ रहता था। वह तीर्थयात्रा करने वाले लोगोंको उतरने के लिये स्थान, भोजन वगैरह की साहाय्य किया करता था। उसके पडोसमें रहने वाली एक बृद्धा ब्राह्मणी उस सम्बन्ध में उसकी निन्दा किया करती थी तथा प्रसंग आने पर बहुतसे लोगोंके सुनते हुए भी इस प्रकार बोलने लग जाती कि 'यह सुन्दर शेठ यात्रालु लोगोंकी खातिर तवजा करता है, उन्हें उतरने के लिये जगह देता है, खानेको भोजन देता है, क्या यह सब कुछ भक्ति के लिए करता है ? नहीं, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। यह तो परदेश से आने वाले लोगोंकी धरोहर पचानेके लिए भक्ताईका ढोंग करता है। एक समय वहां पर कोई एक योगी आया उसकी छांस पीनेकी मर्जी थी परन्तु उस रोज सुन्दर शेठके घरमें छांछ तयार न होनेसे अहीरनी के पाससे उसे मोल ले दी। अहीरनी के मस्तक पर रही हुई उघाड़े मुहको छांछको मटकी में आकाश मार्गसे उड़ती हुई चीलके पंजोंमें दबे हुए सर्पके मुखसे जहरके बिन्दु गिरे होनेके कारण वह योगी उस छांसको पीते ही मृत्युके शरण हो गया। यह कारण बना देख वह वृद्धा ब्राह्मणी दो दो हाथ कूदने लगी और हसती हुई तालियां बजाती अति हर्षित हो कर सब लोगोंके सुनते हुए बोलने लगी कि 'वाह ! वाह ! यह बहुत बड़ा धमी बन बैठा है ! धन ले लेनेके लिये ही इस विचारे योगीके प्राण ले लिये।' इस अवसर पर आकाश मार्ग में खड़ी हुई वह योगीकी हत्या विचारने लगी कि 'अब मैं किसे लगू ? दान देनेवाला याने छांस देनेवाला शेठ तो शुद्ध है, इसके मनमें अनुकम्पा के सिवाय उसे मार डालनेकी विलकुल ही भावना न थी। तथा सर्प भी अनजान और चीलके पंजोंमें फंसा हुआ परवश था इसलिए उसकी भी योगीको मारनेकी इच्छान थी। एवं चील भी अपने भक्ष्यको ले कर स्वाभाविक जा रही थी उसमें भी योगी को मारनेकी बुद्धि न थी। तथा ऊहीरनी भी बिचारी अज्ञात ही थी। यदि उसे इस बातकी खबर होती तो दूसरेका घात करने वाली छांछको वह बेचती ही नहीं। इस लिये इन सबमें दोषी कौन गिना जाय ?
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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