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________________ २७८ श्राद्धविधि प्रकरण समान होनेसे उस पर ही धर्मकी स्थिति भली प्रकार हो सकती है। यदि पीठिका ढूढ़ हो तो उस पर घर टिक सकता है, वैसे ही धर्म भी व्यवहारशुद्धि हो तो ही वह निश्चल रह सकता है। इस लिए व्यवहार शुद्धि अवश्य रखना चाहिए। देशकाल विरुद्धाधिकार "देशादिविरुद्ध त्यागो-देशकाल नृपादिक की विरुद्धता बर्जना । याने देशविरुद्ध, कालविरुद्ध, जातिविरुद्ध, राजविरुद्ध प्रवृत्तिका परित्याग करना। इस लिए हितोपदेशमाला में कहा है कि देसस्सय कालस्सय। तिवस्स लोगस्स तहय धम्पस्स॥ वज्जतो पडिकुलं । धम्म सम्मं च लहई नरो॥ देशविरुद्ध, कालविरुद्ध, राजविरुद्ध, और लोकविरुद्ध एवं धर्मविरुद्ध वगैरह कितने एक अवगुणोंका परित्याग करनेसे मनुष्य उत्तमधर्म को प्राप्त कर सकता है।" जैसे कि सौवीर देशमें खेती करना मना है, वह कर्म वहां नहीं किया जाता। लाट देशमें मदिरापान का त्याग है। इस तरह जिस जिस देशमें जो वस्तु लोगों के आचरण करने योग्य न हो वहां उस वस्तु का सेवन करना विरुद्ध गिना जाता है। तथा जिस देशमें, जिस जातिमें या जिस कुलमें जो वस्तु आवरण करने योग्य न हो उसका आचरण करना देशविरुद्ध में जातिकुल प्रभेदतया गिना जाता है। जैसे कि ब्राह्मण को मदिरा पान करना निषेध है, तिल, नमक वगैरह बेचना निषेध है। इस लिये उन्हींके शास्त्र में कहा है 'तिलवल्लघुता तेषां तिलबत स्यामता पुनः। तिलवच्चनिपीड्यन्ते ये तिलव्यवसायिनः ॥ 'जो तिलका व्यापार करता है, उसकी तिलके समान ही लघुता होती है, तिलके समान वह काला होता है, तिल के समान पीला जाता है।' यह जातिविरुद्ध गिना जाता है। यदि कुलके विषयमें कहा जाय तो जैसे कि चालुक्य वंशवाले रजपूतों को मद्यपान का परित्याग करना कहा है। तथा देशविरुद्ध में यह भी समावेश होता है कि दूसरे देशके लोगों के सुनते हुए उस देशकी निन्दा करना। अर्थात जिस जिस देशमें जो वाक्य बोलने योग्य न हो उन देशोंमें वह वाक्य बोलना यह देशविरुद्ध समझना। कालविरुद्ध इस प्रकार है कि शीतकाल में हिमाचल पर्वतके समीपके प्रदेशमें यदि कोई हमारे देशों से जाय तो उसे शीतवेदना सहन करना बड़ा कठिन हो जाय। इस लिये वैसे देशमें उस प्रकारके कालमें जाना मना है। उष्णकाल में विशेषतः मारवाड देशमें न जाना, क्योंकि वहां गरमी बहुत होती है। चातु. र्मास में दक्षिण देशकी मुसाफिरी करना या जिस जमीनमें अधिक बृष्टि होती हो, या जिस देशमें काव कीचड़ विशेष होता हो, उन देशोंमें प्रवास करना यह कालविरुद्ध गिना जाता है। यदि कोई मनुष्य समयका विचार किये बिना ही वैसे देशोंमें जाता है तो वह विशेष बिटम्बनायें सहन करता है। चातुर्मास के काल. में प्रायः समुद्रके प्रान्तवाले देशोंमें मुसाफिरी करना ही न चाहिये। तथा जहां पर विशेष अकाल पड़ा हो, राजा राजाओं में पारस्परिक विरोध चलता हो, या संग्राम वगैरह शुरू हो, या रास्तेमें डाका वगैरह पड़नेका
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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