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________________ ४७२ मा श्राद्ध विधि प्रकरण राजाने उन्हें सम्मान पूर्वक सुवर्णमुद्रा के दानादिसे प्रसन्न कर विदा किये। यद्यपि राजाने सुवर्णादिक इतना दान किया था कि उन्हें बहुतकाल पर्यंत खरचते हुए भी समाप्त न हो तथापि वह राजद्रव्य अन्यायो. पार्जित होनेसे थोड़े ही समयमें खामेके खर्चसे ही खुट गया और जो सत्पात्र विप्रको मात्र आठ ही रुपयों का दान मिला था वह न्यायोपार्जित वित्त होनेसे उसके घरमें गये बाद भोजन वस्त्रादिमें खर्चते हुये भी वह अक्षय निधानके समान कायम रहा। न्यायले प्राप्त किया हुवा, अच्छे खेतमें बोए हुए अच्छे बीजके समान शोभाकारक और सर्वतो बृद्धिकारक होता है। “दानमें चौभंगी" १ न्यायसे उपार्जन किये द्रब्यकी सत्पात्रमें योजना करने से प्रथम भंग होता है । उससे अक्षय पुण्या. नुबन्धी होकर परलोक में वैमानिक देव तया उत्पन्न हो वहांसे मनुष्यक्षेत्र में पैदा होकर समकित देशविरति वगैरह प्राप्त करके उसी भवमें या थोड़े भवमें सिद्धि पदकी प्राप्ति होती है। धन्ना सार्थवाह या शालीभद्रादिक के समान प्रथम भंग समझना। २ न्यायोपार्जित वित्तसे मात्र ब्राह्मणादिक पोषण करने रूप दूसरा भंग समझना। इससे पापानुवन्धी पुण्य उपार्जन होता है, क्योंकि उस भवमें मात्र संसार सुख फल भोगते हुये अन्तमें भव परंपराकी विडम्बना भोगनेका कारण रूप होनेसे निरसही फल गिना जाता है। जैसे कि लाख ब्राह्मणोंको भोजन कराने वाला विप्र जैसे कुछ सांसारिक सुख भोगादि भोगकर अन्तमें रेचनक नामा सर्वाङ्ग सुलक्षण एक भद्रक प्रकृति वाला हाथी उत्पन्न हुवा । लाख ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे वचे हुये पक्वान्न आदि सुपात्र दानमें योजित करने वाले एक दरिद्री विप्रका जीव सौधर्म देवलोकमें देव तया उत्पन्न हो वहाँके सुखोंका अनुभव करके पुनः वहाँसे च्यवकर पांचसौ राज कन्याओंका पाणिग्रहण करने वाला श्रेणिक राजाका पुत्र नन्दीषेण हुआ। उसे देखकर मदोन्मत्त हुये रेचनक हाथीको भी जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा, तथापि अन्तमें वह पहली नरकमें गया। इसमें पापानुबन्धी पुण्य ही होनेसे भव परंपराकी वृद्धि होती है, इसलिये पहले भगकी अपेक्षा यह दूसरा भंग फलकी अपेक्षा में बहुत ही हीन फल दायी गिना जाता है। यह दूसरा भंग समझना चाहिये। ३ अन्यायसे उपाजन किये द्रव्यको सत्पात्रमें योजन करने रूप तीसरा भंग समझना। उत्तम क्षेत्रमें बोये हुए सामान्य बीज कांगनी, कोदरा, मंडवा, चणा, मटर, वगैरह ऊगनेसे आगामी कालमें कुछ शान्ति सुख पूर्वक उसे पुण्य बन्धके कारण तया होनेसे राजा तथा ब्यापारियोंको अनेक आरम्भ, समारम्भ करने पूर्वक उपार्जन किये द्रव्यसे ज्यों आगे लाभकी प्राप्ति होती है, त्यों इस भंग भी आगे परम्परासे महा लाभकी प्राप्ति हो सकती है, कहा है कि:-- काशयष्टी रिनैषा श्री। रसाराविरसाप्यहो॥ नीने तुर सतां धन्यः । सप्तक्षेत्री निसेवनात् ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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