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________________ श्राद्धविधि प्रकरण यः कांकणीमप्यपथपपन्नी। मन्वेषते निष्कसहस्रतुल्यां ॥ काले च कोटिष्वपि मुक्तहस्त । स्तस्यानुबन्धं न जहाति लक्ष्मीः॥ ओ पुरुष बिना प्रयोजनके कार्यमें एक कवड़ी भी खर्च होती हुई एक हजार रुपयोंके बराबर समझता है, (यदि एक कवड़ी निकम्मी खर्च हो गई हो तो हजार रुपयेके नुकसान समान मानता है) और वैसा ही यदि कोई आवश्यक प्रयोजन पड़ने से एक करोड़का खर्च होता हो तथापि उसमें हाथ लंबा करता है, ऐसे पुरुषका लक्ष्मी सम्बन्ध नहीं छोड़ती। "लोभ और विवेककी परीक्षा करने पर नवी वहका दृष्टान्त" किसी एक बड़े व्यापारीके लड़के की बहू नयी ही ससुराल में आयी थी उसने एक दिन अपने ससूरको दियेमेसे पडते हुये तेलका विन्दू लेकर अपने जूतेको चुपडते देखा, इससे उसने विचार किया कि ससुरेजी की परीक्षा करती चाहिये कि इन्होंने दियेमेंसे टपकते हुये तेलको बिन्दु लोभसे जुतेको चुपड़ा है या विवेकसे ? यह बात मनमें रखकर एक समय वह ऐसा ढोंग कर बैठी जिससे सारे घरमें हलवली मच गई। वह चिल्लाउठी और बोली "अरे मेरा मस्तक फटा जाता है। न जाने क्या होगया! मस्तक पीड़ासे मैं मरी जाती हूं। सतुरं, सासू, वगैरह घरके मनुष्योंने बहुत ही उपाय किये परन्तु फायदा न हुवा ! फिर वह बोली मेरे पिताके घर भी यह मस्तक पीड़ा बहुत दफै हुवा करती थी परन्तु उस समय मेरे पिताजी सच्चे मोतियोंका चूर्ण बना कर मेरे मस्तक पर चुपड़ते तो आराम आ जाता था। यह सुन कर ससुरा बोला-हाँ पहलेसे ही क्यों न कहीं था? यह तो घरकी ही दवा है अपने घरमें सच्चे मोती बहुत ही हैं मैं अभी चूर्ण कर डालता हूं। यों कहकर वह तत्काल उठकर बहुतसे सच्चे मोती निकाल खरलमें डालकर उन्हें पीसनेका उपक्रम करने लगा। तव शीघ्र ही नई बहू बोल उठी कि, बस बस रहने दो! अब तो इस वक्त मेरा मस्तक शान्त हो गया इसलिये मोती पीसनेकी जरूरत नहीं । मुझे तो सिर्फ आपकी परीक्षा ही करनी थी इसलिये विवेक रखकर लक्ष्मीका उपयोग करना योग्य है। धर्म कार्य में लक्ष्मीका व्यय करना यह तो सचमुच ही लक्ष्मीका वशीकरण है। क्योंकि इसीसे लक्ष्मी स्थिर होकर रहती है इसलिये शास्त्र में कहा है मा मस्थ दीयते विर्स, दीयमानं कदाचन । कूपाराम गवादीना, ददतामेव संपदः॥ दान मार्ग में देनेसे वित्तका क्षय होना है, ऐसा कदापि न समझना, क्योंकि कुवे, बाग, बगीचे, गाय, वगैरह को ज्यों हो त्यों उससे संपदा प्राप्त की जा सकती है। "धर्म करते अतुल धनप्राप्ति पर विद्यापति का दृष्टान्त" एक विद्यापति नामक महा धनाढ्य शेठ था। उसे एक दिन स्वप्नमें आकर लक्ष्मीने कहा कि मैं .. आजसे दस दिन तुम्हारे घरसे चली जाऊंगी। इस बारेमें उसने प्रातःकाल उठ कर अपनी स्त्रीसे सलाह की
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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