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________________ २३६ श्राद्धविधि प्रकरण तीनोंके सिवाय अन्य समस्त संघ भी मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा हो, ऐसा बनात्र नजर आया। इस प्रकार संघको अचेतन बना देख श्री वज्रस्वामी ने नये कपर्दिक यक्षको बुलाया। तब उसने हाथमें वज्र ले कर असुर दुष्ट देवताओं की तर्जना की जिससे पूर्वका कपर्दिक अपने परिवार को साथ ले भाग कर समुद्र के किनारे चंद्रप्रभास नामक क्षेत्र ( प्रभासपट्टन ) में जा कर नामान्तर धारक हो कर वहां ही रहने लगा । संघके लोगों को सचेतन करने के लिए वज्रस्वामी ने पूर्व मूर्तिके अधिष्ठायकों को कहा कि, हे देवताओ! ते नावड़ शाह लाया है सो प्रतिमा प्रासादमें मूलनायक तया स्थिर रहेगी, और तुम इस प्रतिमा सहित इस जगह सुखसे रहो । परन्तु प्रथम मूलनायक की पूजा, स्नात्र आरती, मंगल दीपक करके फिर इस जीर्ण बिम्बकी पूजा स्नात्रादिक किया जायगा । परन्तु मुख्यता मूलनायक की ही रहेगी। इस प्रकारसे मागका यदि कोई भी दोष करेगा तो यह कपर्दिक यक्ष उसके मस्तकको भेदन कर डालेगा । इस प्रकारकी दृढ़ आज्ञा दे कर गुरु महाराजने उन देवताओं को स्थिर किया। फिर जय जय शब्द पूर्वक सारे ब्रह्मांडमें ध्वनि फेल जाय उस तरह परम प्रमोदले प्रतिष्ठा सम्बन्धी महोत्सव प्रवर्तने लगा । जिसके लिए शत्रुंजय माहात्म्य में कहा है कि: या गुरौ भक्ति र्या पूजा । जिने दानं च यन्महत् ॥ या भावना प्रमोदो या । नैर्मल्यं यच्च मानसे ॥ १ ॥ तत्सर्वं बभूवास्मिन् । जावडे न्यत्र न कचित् ॥ गवां दुग्धेहि यः स्वादे । रथकं दुग्धे कथं भवेत् ॥ २ ॥ गुरुके ऊपर भक्ति, जिनराज की पूजा, बड़ा दान, भावना प्रमोद, मानसिक निर्मलता, वे छह पदार्थ जितने जावड़में थे उतने अन्य किसी संघपति में नहीं, क्योंकि जैसा स्वाद गायके दूधमें है वैसा आकके दूध में कहांसे हो सकता है ? फिर तमाम विधि समाप्त कर अपनी स्त्री सहित संघपत्ति ध्वजारोपण करनेके लिए बासाद शिखर पर चढ़ा, उस समय वे दम्पती भक्ति पूर्वक प्रमोदके वश यह विचार करने लगे कि अहो ! संसारमें हम दोनों जने आज धन्य हैं, कृतकृत्य हैं, हमारा भाग्य अति अद्भुत है कि जिससे जो महा पुण्यवान को प्राप्त हो सके वैसे तीर्थका उद्धार हमसे सिद्ध हुवा । तथा बड़े भाग्यके उदयसे अनेक लब्धि-भंडार दस पूर्व धारक विश्वरूप अन्धकार को दूर करने में सूर्य समान और संसार समुद्र से तारनहार हमें श्री वज्रस्वामी गुरुदेव की प्राप्ति हुई । तथा महाराजा बाहुबल द्वारा भराई हुई कि जो बहुतसे देवताओं को भी न मिल सके ऐसी श्री ऋषभदेव स्वामी यह महाप्रभाविक प्रतिमा भी हमारे भाग्योदय से ही प्राप्त हुई एवं दूषम कालकी महिमासे जो लुप्त प्राय हो गया था वह शत्रुंजय तीर्थ भी हमारे किए हुए उद्यमसे पुनः चतुर्थ- आरके समान महिमावन्त और अनेक प्राणियोंको सुखसे दर्शन करने योग्य बन सका । श्री वज्रखामीका प्रतिबोधित देव कोटि परिवार युक्त विघ्नविनाशक कपर्दिक नामक यक्ष अधिष्ठायक हुवा, इय सबमें हम दोनोंका प्रारभार - उत्कृष्ट पुण्य कारण है। संसार में बसते हुए सांसारिक प्राणियोंके लिये वही मुख्य फल खार है कि श्री संघको आगे करके श्रीशत्रुंजय सीर्थ की यावा करना । वे हमारे मनोरथ आज सर्व प्रकारचे परिपूर्ण हुवे इसलिए आजका दिन
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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