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________________ श्राद्ध विधि प्रकरण १८६ ससुराल गई तब कुछ समय तक वहां भी किसी २ वक्त कुछ न कुछ विघ्न होने लगे। ऐसे परम्परा से आप. त्तियां आ पड़नेसे उसे अपने पतिसे सचमुच ही संसार सुखका संयोग यथार्थ और अधिक वृद्धि पाता हुवा प्रेमहोने पर भी बन सकनेका प्रसंग न आया। इससे वह स्वयं भी बड़े उद्योगको प्राप्त हुई । अन्तमें एक ज्ञानी गुरु मिले, उनके पास जाकर उसने अपना नसीब पूछा । ज्ञानी गुरुने कहा कि हे कल्याणी ! तूने पूर्व भवमें का नकरा देकर उजमना वगैरह बहुत सी पुण्य करनिओं में बड़ा आडम्बर कर बतलाया। उस होनबुद्धि से तूने जो कर्म उपार्जन किया उसीका यह परिणाम है। यह सुन कर वह बड़ा दुःख मनाने लगी। तब गुरुने कहा “ऐसे खेद करनेसे कुछ पाप दूर नहीं होता। उस पापको तो आत्मसाक्षी निंदा करना चाहिये।" फिर उसने उन गुरुके पास उस कर्मका आलोयण प्रायश्चित लिया। फिर दीक्षा अंगीकार करके अनुक्रम से सब कर्मोंका नाश कर वह सिद्धि पदको प्राप्त हुई। इस लिये उजमना वगैरह में रखने योग्य जो जो पदार्थ लिया हो उस पदाथका जितना मूल्य हो उतना अथवा उससे भी कुछ अधिक.मूल्य देना, ऐसा करनेसे नकरेकी शुद्धि होती है। इसमें इतना समझना है कि किसीने अपने नामका विस्तारसे उद्यापन शुरू किया हो उसमें जो जो पदार्थ मन्दिरके लेनेकी जरूरत पड़े उसका बराबर नकरा देनेकी शक्ति न हो तो उसका आचार पूरा करनेके लिये जितनी चीजोंका नकरा पूरा दिया जाय उतनी ही चीजें रख कर उद्यापन पूरा करना । इसमें करनेवाले को कुछ भी दोष नहीं लगता। "घर मंन्दिरमें चढाये हुए चावल वगैरह द्रव्यकी व्यवस्था अपने घर-मन्दिरमें चढ़ाये हुए चावल, सुपारी, फल, नैवेद्य वगैरह बेच डालनेसे उत्पन्न हुए द्रव्यके खरीदे हुए फूल वगैरह अपने घर मन्दिर में पूजा करनेके कार्यमें उपयुक्त न करना एवं गांवके बड़े मन्दिरमें जाकर भी बिना कहे अपने हाथसे न चढ़ाना। तब फिर क्या करना ? इस प्रश्नका खुलासा-जो सत्यस्वरूप हो वैसा कह कर वे फूल चढ़ानेके लिए पुजारीको देना, यदि ऐसा न बने तो अपने हाथसे चढ़ाना परन्तु लोगोंसे व्यर्थकी प्रशंसा करानेके दोष लगनेके सबबसे विना सत्य हकीकत प्रकट किये न चढाना । ( यदि सत्य हकीकत कहे विना चढावे तो लोग वैसा देख कर प्रशंसा करें कि, अहो यह कैसा भाविक है कि, जो अपने द्रव्यसे इतने सारे फूल चढ़ाता है; ऐसे व्यर्थ प्रशंसा करानेसे. दोष लगता है ) घर मन्दिरमें रख्खे हुए नैवेद्यादि, फूल वगैरह ला देनेवाले माली वगैरह को ठहराये हुए मासिक वेतनमें न देना। पहलेसे ही ऐसा ठहराव किया हो कि, तुझे इतना काम घर मन्दिरमें करनेसे प्रतिदिन चढ़ा हुवा नैवेद्यादिक देंगे तो वह देनेसे दोष नहीं लगता। सत्य बात तो यही है कि जो मासिक वेतन देना वह जुदा ही देना चाहिए। उसके बदले में नैवेद्यादिक देना उचित नहीं। सच पूछो तो घर मन्दिर में चढाये हुए चावल फल नैवेद्यादिक सब कुछ बड़े मन्दिर में भिजवा देना ठीक लगता है। यदि ऐसा न करे और नैवेद्यादिक से उत्पन्न हुए द्रव्य द्वारा अपने घर मन्दिर में पूजा करे तो वह देवद्रव्य से पूजा की गिनी जाय और अनादर प्रमुख दोष लगता है। गृहस्थ स्वयं अपने घरके
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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