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________________ १६० श्राद्धविधि प्रकरण पालन किया हो तो भी बिना नियमके धर्मसे अनन्तगुण फलदायक हो सकता है। जैसे कि, किसीको कितनेक रुपये व्याज कहे बिना ही दिये हों तब फिर उन रुपयोंको जब पीछे लें उस वक्त उनका कुछ व्याज नहीं मिलता, परन्तु यदि ब्याज कह कर दिये हों तो सदैव सुद चढ़ा करता है और जब पीछे लें तब सूद सहित मिलते हैं। कोई ऐसा भी भव्य जीव श्रेणिकादिक के समान होता है कि जिससे अविरतिपनका उदय होनेसे कुछ नियम धर्म आराधन नहीं करा जा सकता, परन्तु वह ऐसा दृढधर्मी होता है कि, सनियमवाले से भी कष्टके समय ऐसा प्रयत्न करता है कि उससे भी अधिक नियमवान् के जैसा फल प्राप्त करता है । ऐसे जीव आसन्नटिद्धिक कहलाते हैं । पूर्वभवमें इसने प्रभुको कमल चढ़ाया उस दिनसे यद्यपि यह नियमवान् नहीं था तथापि सनियमवाले से भी अधिकतर उत्साह पाकर सनियमके समान ही पालन किया था। एक मालकी उमरवाले इस बालकने जो कल नियम धारण किया उस दर्शनका नियय पालनेसे इसने कल स्तनपान किया था, परन्तु आजके दिन दर्शनका योग न बननेसे लिये हुये नियमको टूटने के भयसे भूखा होने पर भी स्तन्यपान न किया और हमारे वचनसे दर्शन कराए बाद इर ने स्तन्यपान किया। क्योंकि इसका अभिग्रह पूरा हुवा इसलिये स्तन्यपान किया है। पूर्वभव में जो कुछ शुभाशुभ कर्म किया हो वह अवश्यमेव जन्मान्तर में प्राणियों के साथ आता है । पूर्वभवमें जो भक्ति की थी वह अनजानपन की थी, परन्तु उसीके महिमा से इस भवमें ज्ञानसहित वह भक्ति प्रकट हुई है इससे वह सवप्रकार की इसे रिद्धि और संपदा देनेवाली होगी। जो चार मालीकी कन्यायें मिली थीं वे देवत्व भोगकर किसी बड़े राजाके कुलमें राजकन्यातया उत्पन्न हुई हैं, वे भी इस कुमारकी स्त्रियाँ होनेवाली हैं, क्योंकि साथमें किया हुवा पुण्य साथमें ही उदय आता है । मुनि महाराज की पूर्वोक्त वाणी सुनकर वैसे लघु बालकको भी वैसा आश्चर्य कारक नियम और उस नियमका वैसा कोई अलौकिक फल जानकर राजा रानी आदि सब लोग नियम पालनमें निरन्तर कटिबद्ध हुये। फिर मुनिराज बोले कि अब मैं अपने संसारपक्षके पुत्रको प्रतिबोध देनेके लिए उद्यम करूंगा, ऐसा कह कर मुनिराज आकाश मार्गसे गरुड़के समान उड़ गये। उस दिन आश्चर्यकारक जाति स्मरण ज्ञानवन्त धर्मदत्त अपने दृढ़ नियमको मुनिराजके समान सात्विक हो अपने रूप, गुण, सम्पदा की वृद्धि पाने के समान प्रवर्धमान भावसे पालने लगा। उस दिनसे निरन्तर प्रबर्धमान शरीरके समान प्रतिदिन उस लघु राजकुमारके लोकोत्तर गुणका समुदाय भी बढ़ने लगा । धर्मदत्तकुमार धर्म के प्रभावसे जिन गुणोंका अभ्यास करता है उनमें निपुणता प्राप्त करता जाता है। अपने नियमको पालन करतेहुए जब वह तीन बर्षका हुवा तबसे नाना प्रकारकी कलाओंका अभ्यास करने लगा । पुरुषोंकी लिखनेकी कला, गणितकी कला, बगैरह बहत्तर कलाओं मैं उसने क्रमसे निपुणता प्राप्त की । सुगुरुका योग मिलने पर धर्मदत्तकुमार लघु वयसे ही श्रावक के व्रत अंगीकार करने लगा । गुरुमहाराज के पास विधिविधान का अभ्यास करके वह विधिपूर्वक जिनेश्वरदेव की त्रिसन्ध्य पूजा करने लगा । जिस प्रकार गन्ने का मध्यभाग बड़ा मधुर होता है वैसे ही वह राजकुमार सब
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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