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________________ श्राद्ध-विधि प्रकरण शय्यामें से सोकर उठे तब उस मूर्खने उनके मुंहले भाप निकलती देख एक दम मिट्टी और पानी उठा कर लाया दरोगा साहब आखें ही मल रहे थे उसने उनके मुंह पर मिट्टी और पानी डाल दिया और बोला कि हुजूर आपके मुंहमें आग लग गई । इस घटना से दरोगा साहब ने उसे मार पीटकर और मूर्ख समझ कर अपने घरसे निकाल दिया। इस प्रकार बचन का भावार्थ न समझने वाले व्यक्ति भी धर्मके अयोग्य होते हैं। .४ पहलेसे ही यदि किसीने व्युद ग्राहीत (भरमाया हुआ) हो तो भी गोशालकसे भरमाये हुए नियति वादी प्रमुखके समान उसे धर्मके अयोग्य ही समझना चाहिये। इस प्रकार पूर्वोक्त चार दोष वाले मनुष्य को धर्म के अयोग्य समझना चाहिये। १ मध्यस्थवृत्ति-समदृष्टि धर्मके योग्य होता है। राग द्वेष रहित आर्द्र कुमार आदिके समान जानना चाहिये । २ विशेष निपुण मति-विशेषज्ञ जैसे कि हेय ( त्यागने योग्य ) ज्ञेय (जानने योग्य ) और उपादेय (अंगीकार करने योग्य) के विवेकको जानने वाली बुद्धिवाला मनुष्य धर्मके योग्य समझना ३ न्याय मार्ग रति न्याय के मार्गमें बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भी धर्मके योग्य जानना। दृढ़ निज वचन स्थिति-अपने बचनकी प्रतिक्षामें दृढ़ रहने वाला मनुष्य भी धर्मके योग्य समझना। इस प्रकार चार गुण युक्त मनुष्य धर्मके योग्य समझा जाता है। तथा अन्य भी कितनेक प्रकरणों में श्रावकके योग्य इक्कीस गुण भी कहे हैं सो नीचे मुताबिक जानना। धम्मरयणस्स जुग्गो, अखुद्दो रूववं पगईसोमो । लोगप्पियो अकूररो, भीरू असठो सविरुणो ॥ १ ॥ लज्जालुओ दयाल, मझ्झत्थो सोमदिठिगुणरागी । सक्कह सुपक्खजुठो, सुदीहदंसी विसेसण्णु ॥ २ ॥ वुढाणुगो विणीओ, कयण्णू ओ परहिअथ्थकारी य । तह चेव लद्धलक्खो, इगवीस गुणेहिं संजुत्तो ॥ ३ ॥ १ अक्षुद्र-अतुच्छ हृदय ( गम्भीर चित्त वाला हो परन्तु तुच्छ स्वभाववाला न हो)२ स्वरूपवान (पाचों इन्द्रियां सम्पूर्ण और स्वच्छ हों परन्तु काना अन्धा तोतला लूला लंगड़ा न हो ) ३ प्रकृति सौम्य खभावसे शान्त हो किन्तु क्रूर न हो ५ लोक प्रिय (दान, शील, न्याय, विनय, और विवेक आदि गुण युक्त) हो । ५ अक्रूर-अक्लिष्ट वित्त (ईर्ष्या आदि दोष रहित हो) ६ भीरू-लोक निन्दासे पाप तथा अपयशसे डरने वाला हो।७ असठ-कपटो न हो। ८ सदाक्षिण्य-प्रार्थना भंगसे डरने वाला शरणागत का हित करने वाला हो । ६ लजालु-अकार्य वर्जक यानी अकार्य करनेसे डरने वाला। १० दयालु-सब पर दया रखने वाला । ११ मध्यस्थ--राग द्वेष रहित अथवा सोम दृष्टि अपने या दूसरेका बिचार किये बिना न्याय मार्ग में सबका समान हित करने वाला, यथार्थ तत्व के परिज्ञानसे एक पर राग दूसरे पर द्वेष न रखने वाला मनुष्य ही मध्यस्थ गिना जाता है। मध्यस्थ और सोमदृष्टि इन दोनों गुणों को एकही गुण माना है । १२
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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