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________________ श्राद्धविधि प्रकरण 1 sit पोसो विसए । गुरुकम्माणं भवाभिनंदीण ॥ पथ्यंमि श्राउरा एव । उवठिए निच्छिए मरणे ॥ ६ ॥ तोचि तत्तन्तु । जिस विम्बे जिद धम्मे वा ॥ सुभास भयायो । पद्मोस लेसंपि वज्जन्ति ॥ ७ ॥ १४७ जिस प्रकार मरणासन्न रोगीको पथ्य भोजन पर द्वेष उत्पन्न होता है वैसे ही भारी कर्मों या भवाभिनन्दी जीवोंको धर्मपर भी अति द्वेष होता है। इसी लिए सत्यतत्व को जानने वाले पुरुष जिनबिम्ब पर या जिन प्रणीत धर्म पर अनादि कालके अशुभ अभ्यासके भयसे द्वेषका लेस भी नहीं रखते । "धर्म पर द्वेष रखनेके सम्बन्धमें कुन्तला रानीका दृष्टान्त" पृथ्वीपुर नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसे कुन्तला नामा पटरानी थी। वह अत्यन्त afg थी, तथा दूसरी रानियोंको भी बारम्वार धर्मकार्य में नियोजित किया करती थी। उसके उपदेशसे उसकी तमाम सौतें भी धर्मिष्ठा होकर उसे अपने पर उपकार करनेके कारण तथा राजाकी बहु माननीया और सबमें अग्रिणी होनेसे अपनी गुर नीके समान सन्मान देती थीं। एक समय रानियोंने अपने २ नामसे मन्दिर प्रतिमायें बनवाकर उनकी प्रतिष्ठाका महोत्सव शुरू किया । उसमें प्रतिदिन, गीत, गायन, प्रभावना, स्वामि वात्सल्य, अधिकाधिकता से होने लगे। यह देख कुन्तला पटरानी सौत स्वभावसे अपने मनमें बड़ी ईर्षा करने लगी। उसने भी सबसे अधिक रचना वाला एक नवीन मन्दिर बनवाया था । इसलिये वह भी उन सबसे अधिक ठाठमाठसे महोत्सव कराती है, परन्तु जब कोई उन दूसरी सौतोंके मन्दिर या प्रतिमाओंकी बहु मान या प्रशंसा करता है तब वह हृदयमें बहुत ही जलती है । जब कोई उसके मन्दिरकी प्रशंसा करता है तब सुनकर बड़ी हर्षित होती है। परन्तु जब कोई सौतोंके मन्दिरको या उनके किये महोत्सवकी प्रशंसा करता है तब ईर्यासे मानो उसके प्राण निकलते हैं। अहा ! मत्सरकी केली दुरंतता है ! ऐसे धर्म द्वेषका पार पाना अति दुष्कर है। इसीलिए पूर्वाचार्योंने कहा है कि: पोता अपि निमज्जन्ति । मत्सरे मकराकरे । तत्तत्र मज्जन्नन्येषां । दृषदा मिव किं नवं ॥ १ ॥ विद्यावाणिज्य विज्ञान | वृद्धि ऋद्धि गुणादिषु ॥ जातौ ख्यातौ च मौनत्या । धिधिक् धर्मेपि मत्सरः ॥ २ ॥ - मत्सररूप समुद्र में जहाज भीं डूब जाता है तब फिर उसमें दूसरा पाषाण जैसा डूबे तो आश्चर्य ही क्या ? विद्यामें, व्यापारमें, विशेष ज्ञानकी वृद्धि में, संपदा में, रूपादिक गुणोंमें, जातिमें, प्रख्यातिमें, उन्नतिमें, बड़ाईमें, इत्यादिमें लोगोंको मत्सर होता है । परन्तु धिक्कार है जो धर्मके कार्य में भी ईर्षा करता है । दूसरी रानियां तो बिचारी सरल स्वभाव होनेसे पटरानीके कृत्यकी बारंवार अनुमोदना करती हैं, परन्तु पटरानीके मनसे ईर्षाभाव नहीं जाता। इस तरह ईर्षा करते हुए किसी समय ऐसा दुर्निवार कोई रोग उत्पन्न हुवा कि जिससे वह सर्वथा जीनेकी आशासे निराश होगई । अन्तमें राजाने भी जो उस पर कीमती सार आभूषण
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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