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________________ श्राद्धविषि प्रकरण ही रहना चाहिये, और करते समय बिधि पूर्वक करनेका उद्यम करते रहना यह श्रेयस्कर है। यही श्रद्धालुका लक्षण है.शास्त्रमें भी कहा है कि: विहिसार चिन सेवई। सद्धालु सत्तिमं अठाणं । दवाई दोस निहमो। विपखवायं वहइ तंमि ॥१॥ श्रद्धालु श्रावक यथाशक्ति विधिमार्गको सेवन करनेके उद्यमसे अनुष्ठान करता रहे अन्यथा किसी द्रव्या. दिक दोषसे क्रिया में शानुभाव पाता है (श्रद्धा उठ जाती है ) घमाणं विहिजोगो। विहिपख्खाराहगा सया धना ॥ विहि बहुपाणी धना। विहि पख्खा अदुसगा धन्ना ॥२॥ जिसकी क्रिया विधियुक्त हो उसे धन्य है, विधिसंयुक्त करने की भावमा रखता हो उसे धन्य है, विधि मार्ग पर आदर बहुमान रखने वालेको धन्य है, विधिमार्गकी निन्दा न करें. मेसे पुरुषोंको भी धन्य है। आसन्न सिद्धिमाणं । विहि परिणामोउहोइ सयकासं॥ विहिचामो विहिभत्ती। अभव्य जीवाण दुर भन्नाणं ॥३॥ थोड़े भवमें सिद्धिपद पानेबालेको सदैव विधिसहित करनेका परिणाम होता है, और अभव्य तथा दुर्भज्य को विधिमार्गका त्याग और अनिधि मार्गक्रा सेवन बहुत ही प्रिय होता है। खेतीवाड़ी, व्यापार, नौकरी, भोजन, शयन, उपवेशन, गमन, आगमन, बचन वगैरह भी द्रव्य, क्षेत्र, काल ...भाव, आदिसे विचार करके विधिपूर्वक सेवन करे तो संपूर्ण फलदायक होता है और यदि ; विधि उल्लंघन करके धर्मानुष्ठान करे तो किसी व्रत अनर्थकारी और किसी दफा अल्प लाभकारी होता है। . "अविधिसे होनेवाले अल्प लाभ पर दृष्टान्त” सुना जाता है कि कोई व्यार्थी दो पुरुष देशान्तरमें जाकर किसी एक सिद्ध पुरुषकी सेवा करते थे। उनकी सेवासे तुष्टमान हो सिद्ध पुरुषने उन्हें देवाधिष्ठित महिमावंत तुम्बेके बीज देकर उसकी आम्नाय व्रत लाई कि, सौ दफा हल चलाये हुए खेतमें मंडपकी छाया करके अमुक नक्षत्र बारके योगसे इन्हें बोना। जब की.बेल उत्पन्न हो तब प्रथमसे फलके बीज ले संग्रह कर रखना और फिर पत्र, पुष्प, फल, दंठल सहित उस बेलको खेतमें ही रखकर नीचे कुछ ऐसा संस्कार करना कि जिससे ऊसपर पड़ी हुई राख व्यर्थ न जाय फिर उस सूकी हुई बेलको जलादेना। उसकी जो राख हो वह सिद्ध भस्म गिनी जाती है। चौंसठ तोले ताम्र गालकर उसमें एक रत्ति सिद्धभस्म डालना उससे तत्काल ही वह सुवर्ण बन जायगा। इस प्रकार दोनोंको सिखलाकर बिदा किया। वे दोनों अपने अपने घर चले गये। उन दोनों से पकने यथाविधि जाने सिद्ध पुरुषके कथनानुसार सुवर्ण प्राप्त किया और दूसरेने उसकी विधिमें कुछ भूल की जिससे उसे सुवर्ण के ले.चांदी प्राप्त हुई परन्तु सुवर्ण न बना। इसलिए जो २ कार्य हैं वे सब यथाविधि , होने पर ही संपूर्ण मादायक निकलते हैं।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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