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________________ श्राद्धविधि प्रकरण जिणहाने तो जिनवरा नमिला तारोतार ।' जिणे करी जिनक्र पूजिये सो किय मारनहार ॥१॥ चारणका यह वचन सुनकर जिनहाक लजित होगया और उसका गुन्हा माफ कर उसे छोड़देनेकी आशा देकर कहने लगा जा फिर ऐसी चोरी न करना। यह बात सुन चारण बोला एका चोरी सा किया, जाखो लडे न माय । . दूजी चोरी किमि करे चारण चोर न थाय ॥ उसके पूर्वोक बचनसे उसे चारण समझकर बहुमान देकर पूछा “तू यह क्या बोलता है ?" उसने कहा, कि, "क्या चोर कभी ऊंटकी चोरी करता है ? कदापि करे तो क्या उसे अपने खोलने याने अपने झोपड़ेमें बांधे ? यह तो मैंने आपके पास दान लेनेके लिए ही युक्ति की है। उस वक जिणहाकने खुशी हो कर उसे दान के विदा किया। तदनंतर जिणहाक तीर्थ यात्रा, चैत्य, पुस्तक भंडार आदि बहुतसे शुभ कृत्य करके शुभ गतिको प्राप्त हुवा। मूल बिम्बकी पूजा किये बाद अनुक्रमसे जिसे जैसे संघटित हो वैसे यथाशक्ति सब बिम्बोंकी पूजा करे । ___ "द्वारबिम्ब और समवशरण बिम्ब पूजा" द्वारबिम्ब और समवशरणबिम्ब (दरवाजेके ऊपरकी और अवासनके वीनकी प्रतिमा) की पूजा मूल नायककी ओर दूसरे बिम्बकी पूजा किये बाद ही करना, परन्तु गभारेमें प्रवेश करते ही करना संभविति नहीं। कदाचित गभारेमें प्रवेश करते ही द्वार बिम्बकी पूजा करे और तदनन्तर ज्यों २ प्रतिमाय अनुक्रमसे हों त्यों २ उनकी पूजा करता जाय तो बड़े मन्दिर में बहुतसा परिवार हो इससे बहुतसे बिम्बोंकी पूजा करते पुष्प-चन्दन धूपादिक सर्व पूजन सामग्री समाप्त हो जाय । तब फिर मूलनायककी प्रतिमाकी पूजा, पूजनद्रव्य सामग्री,. वची हो तो हो सके और यदि समाप्त हो गई हो तो पूजा भी रह जाय। ऐसे ही यदि शत्रुजय, गिरनार, आदि तीर्थों पर ऐसा किया जाय याने जो २ मन्दिर आवे वहां २ पर पूजा करता हुआ आगे जाय तो अंतमें तीर्थनायकके मन्त्रिमें पहुंचने तक सर्व सामग्री समाप्त हो जाय, तब तीर्थनायककी पूजा किस तरह की जा सके। अतः मूलनायककी पूजा करके यथायोग्य पूजा करने जाना उचित है । यदि ऊपर लिखे मुजब करे तो उपाश्रयमें प्रवेश करते समय यथाक्रमसे जिन २ साधुओंको बैठा देखे उनको 'खमासमण' देकर बन्दन करता जाय तो अन्तमें आचार्य प्रमुखके आगे पहुंचते बहुतसा समय लग जाय और यदि वहां तक थक जाय तो अन्तमें आचार्य प्रमुखको बन्दना कर सकनेका भी अभाव हो जाय, इसलिए उपाश्रयमें प्रवेश करते वक्त जो २ साधु पहले मिले या बैठे हों उन्हें मात्र प्रणाम करते जाना और पहले आचार्य आदिको विधिपूर्वक वन्दन करके फिर यथानुक्रमसे सब साधुओंको यथाशक्ति बन्दन करना; वैसे ही मन्दिर में भी प्रथम मूलनायककी पूजा किये वाद, सर्व परिकर या परिवारकी पूजा करना समुजित है, क्योंकि जिवाभिगम सत्रमं कथन किये मुजब ही संघाचारमें कही हुई विजय देवकी बक्तव्यताके विषय में भी द्वार बिम्बकी और समवशरणकी पूजा सबसे अन्तिम यही बतलाई है और सो ही कहते हैं।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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