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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ११६ इस पाठसे मालूम होता है कि, जो उपयोगमें लेने लायक न रहा हो वही द्रव्य निर्माल्य समझना चाहिये । विशेष तत्व सर्बज्ञ गम्य है। ___ केशर चंदन पुष्पादिक पूजा भी ऐसे ही करना कि, जिससे चक्षु, मुख आदि आच्छादन न हों और शोभाकी वृद्धि हो एवं दर्शन करने वालेको अत्यन्त आल्हाद होनेसे पुण्यवृद्धिका कारण बन सके। इस लिए अंगपूजा, अग्रपूजा, भावपूजा, ऐसे तीन प्रकारकी पूजा करना । उसमें प्रथमसे निर्माल्य दूर करना, परिमार्जन करना, प्रभुका अंग प्रक्षालन करना, वाला कूची करना, फिर पूजन करना, स्नात्र करते कुसुमांजलिका छोड़ना, पंचामृत स्रात्रका करना, निर्मल जल धारा देना, धूपित स्वच्छ मृदु गंध कासायिक वस्त्रसे अंग लुछन करना, वरास; केसर, चांदी, सोनेके, वर्क, आदिसे प्रभुकी आंगी वगैरहकी रचना करना, गो चंदन, कस्तूरी, प्रमुखसे तिलक करना, पत्र रचना करना, बोचमें नाना प्रकारको भांतिकी रचना करना, बहु मूल्यवान् रत्न, सुवर्ण, मोतीसे या सुवर्ण चांदिके फूलसे आंगीकी सुशोभित रचना करना, जिस प्रकार वस्तुपाल मंत्रीने अपने भराये हुये सवा लाख जिनबिम्बोंको एवं शत्रुजय तीर्थ पर रहे हुए सर्व जिनबिम्बोंको रत्न तथा सुवर्णके आभूषण कराये थे। एवं दमयंतीने पूर्व भवमें अष्टापद पर्वत पर रहे हुये चौवीस तीर्थंकरोंके लिए रत्नके तिलक कराये थे। इस प्रकार जिसे जैसो भाव वृद्धि हो वैसे करना श्रेयकारी है। कहा है किः पवरेहिं कारणेहिं । पायं भावोवि जायए पवरो॥ नय अन्नो उपयोगो। एएसिं सयाण लट्ठयरो ॥१॥ उत्तम कारणसे प्रायः उत्तम कार्य होता है वैसे ही द्रव्य पूजाकी रचना यदि अत्युत्तम हो तो बहुतसे भव्य प्राणियोंको भावकी भी अधिकता होती है। इसका अन्य कुछ उपयोग नहीं, (द्रव्य पूजामें श्रेष्ठ द्रव्य लगानेका अन्य कुछ कारण नहीं परन्तु उससे भावकी अधिकता होती है ) इसलिए ऐसे कारणका सदैव स्वीकार करना जिससे पुष्टतर पुण्य प्राप्ति हो। तथा हार, माला, प्रमुख विधि पूर्वक युक्तिसे मंगाये हुये सेवति, कमल, जाई, जूई, केतकी, चंपा आदि फूलोंसे मुकुट पुष्प पगर (फूलोंके घर ) वगैरहकी रचना करना। जिनेश्वर भगवानके हाथमें सुवर्णका विजोरा, नारियल, सुपारी, नागरबेलके पान, सुवर्ण महोर, चांदि महोर, अगूंठी, लड्डू आदि रखना, धूप देना, सुगंध-वास प्रक्षेप करना । ऐसे ही सब कारण हैं, जो सब अंग पूजामें गिने जाते हैं। बृहत् भाष्यमें भी कहा है किः न्हवण विलेवण आहरण । वथ्थफल गंध धूव पृफ्फेहिं ॥ किरई जिणंगपूमा। तथ्थ विहीए नायव्वा ॥१॥ वच्छेणं बंधीउणं । नासं अहवा जहा समाहिए॥ वज्जे अवंतुनया देहमिवि कंडु अणमाई ॥२॥ . स्नान, विलेपन, आभरण, वस्त्र, बरास, धूप, फूल, इनसे पूजा करना अंग पूजामें गिना जाता है । वन द्वारा नासिकाको बांधकर जैसे वित्त स्थिर रहे वैसे वर्तना। मंदिरमें पूजा करते समय खुजली होने पर भी अपने अंगको खुजाना न चाहिये । अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है कि:
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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