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________________ ११७ श्राद्धविधि प्रकरण संबन्धी सर्व वितार चितवन करना । फिर यत्न पूर्वक बाला कूचीसे चंदन, केशर पहले दिनके लगे हुये हो सो सब उतारना । तथा दूसरी दका भी जलसे प्रक्षालन कर दो कोमल अंगलून्होंसे प्रभुका अंग निर्जल करना। सर्वाङ्ग निर्जल करके एक अंगके बाद दूसरे अंगमें इत्यादि अनुक्रमसे पूजा करे । “चन्दनादिकसे नव अंगकी पूजा" दो अंगूठे, दो जानू, दो हाथ, दो कन्धे, एक मस्तक । इस तरह नव अंगों पर भगवंतकी केसर, चंदन, बरास, कस्तूरीसे पूजा करे। कितनेक आचार्य कहते हैं कि, प्रथम मस्तक पर तिलक करके फिर दूसरे अंगोंमें पूजा करना । श्री जिनप्रभसरिकृत पूजाविधिमें निम्न लिखे पाठके अनुसार अभिप्राय है:___ सरस सुरहि चंदणेण देवस्स दाहिणजाणु दाहिणखंध निलाड वामखंध वामजाणु लख्खणेसु पंचसु हि अएहिं सह छसुवा अंगेसु पुअं काऊण पञ्चग्ग कुसुमेंहिं गंधवासेहिं च पुइयं ॥ सरस सुगंधित चंदनादि द्वारा देवाधिदेवको प्रथम दहिने जानू पर पूजा करनी, फिर दाहिने कन्धे पर, फिर मस्तक पर, फिर बांये कन्धे पर, फिर बांये जानू पर, इन पांच अंगोंमें तथा हृदय पर तिलक करे तो छह अंग पूजा मानी जाती है। इस प्रकार सर्वाङ्ग पूजा करके ताजे विकखर पुष्पोंसे सुगन्धी वाससे प्रभुकी पूजा करे, ऐसा कहा है। "पहलेकी की हुई पूजा या आंगी उतार कर पूजा हो सके या नहीं” यदि किसीने पहले पूजा की हुई हो या आंगीकी रचना की हुई हो और वैली पूजा या आंगी न बन सके वैसी पूजाकी सामग्री अपने पास न हो तो उस आंगीके दर्शनका लाभ लेनेसे उत्पन्न होने वाले पुण्यानुबंधी पुण्यके अंतराय होनेके कारणिकपन के लिए उस पूर्व रचित आंगी पूजाको न उतारे। परन्तु उस आंगी पूजा की विशेष शोभा बन सके ऐसा हो तो पूर्व पूजा पर विशेष रचना करे । परन्तु पूर्वं पूजाको विच्छिन्न न करे। तदर्थ भाष्यमें कहा है कि, अह पुव्वं चित्र केणइ । हविज पृया कया सुविहवेण ॥ तंपि सविसेससोहं । जह होइ तह तहा कुज्जा ॥१॥ "यदि किसी भव्य जीवने बहुतसा द्रव्य खर्च करके देवाधिदेवकी पूजा की हो तो उसी पूजाकी विशेष शोभा हो सके तो वैसा करे।” यहां पर कोई यह शंका करे कि पूर्वकी आंगी पर दूसरी आंगी करे तो पूर्वकी आंगी निर्माल्य कहीं जाय । इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि, निम्मल्लपि न एवं । भएणइ निम्पल्लं लख्खणाभावा ॥ भोग विणळं दव्वं । निम्मलं विति गीयथ्था ॥२॥ यहां पर निर्माल्यके लक्षणका अभाव होनेसे पूर्वकी आंगी पर दूसरी आंगी करे तो वह पूवकी आंगी निर्माल्य नहीं गिनी जाती। जो पूजा किये बाद नाशको प्राप्त हुवा; पूजा करने योग्य न रहा वह द्रव्य निर्माल्य गिना जाता है, ऐसा गीतार्थोंका कथन है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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