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________________ श्राद्धविधि प्रकरण (औषधादिकमें शक्कर वगैरह होती है वह आहारमें गिनी जाती है और सर्प काटे हुयेको मुक्तिक नींव पत्रादिक जो औषध है वह अनाहार है)। जं वा खुहावंतस्स ; संकमाणस्स देई आसायं ॥ सम्वो सो आहारो। अकाम्माणि च णाहारो॥ ६॥ अथवा जो पदार्थ क्षुधावान्को अपनी मर्जीसे खाते हुये स्वाद देता है वह सब आहार गिना जाता है। और क्षुधावन्तको खाते हुवे जो मनको अप्रिय लगता है वह अनाहार कहलाता है। प्रणाहारो मो छल्ली। मूलं च फलं च होइ प्रणाहारो॥ अणाहार मूत्र या नींवकी छाल या फल, या आंवला, हरडे, बहेड़ादिक, और मूल, पंच मूलका काढ़ा (जो बड़ा कडवा होता है ) ये सब वस्तुयें अनाहारमें समझना। (उपरोक्त गाथाके दो पदका आशय नीशीथ चूर्णीमें इस प्रकार लिखा है "मूल, छाल, फल और पत्र ये सब नीमके अनाहार समझना"). . “प्रत्याख्यानके पांच स्थान" प्रत्याख्यानमें पांच स्थान (भेद ) कहे हैं। पहले स्थानमें नवकार सही, पोरशी, वगैरह, प्रायः काल प्रत्याख्यान, चोविहार करना । दूसरे स्थानमें विगयका, आंबिलका, नीवीका, प्रत्याख्यान करना। उसमें जिसे विगयका त्याग न करना हो उसे भी विगयका प्रत्याख्यान लेना चाहिये, क्योंकि प्रत्याख्यान करनेवालेको प्रायः महाविगय ( दारू, मांस, मक्खन, मधू ) का त्याग ही होता है, इससे विगयका प्रत्याख्यान सबको लेना योग्य है। तीसरे स्थानमें एकासन, द्विआसन, दुविहार, तिविहार, चोइहारका प्रत्याख्यान करना । चौथे स्थानमें पाणस (पानीके आगार लेना) का प्रत्याख्यान करना। पांचवें स्थानमें देशावकासिकका प्रत्याख्यान लेना । प्रथम ग्रहण किये हुवे सवित्तादिक चौदह नियम सुवह, शाम, संक्षेप करने रूप उपवास, ऑविल, नीवी, प्रायः तिविहार, चोविहार होते हैं परन्तु अपवादसे तो नीवो प्रमुख पोरशी आदिके प्रत्याख्यान दुविहारके भी होते हैं, कहा कि:-- . साहुर्ण रयणीए । नवकार सहिम चउबिहाहार॥ भवचरिर्म उपवासो । प्राविल विवि हो चउबिहोवावि ॥१॥ सेसापच्चखाणा। दुइ तिह चउहावि हुन्ति आहारे ॥ इन पच्चख्खाणेसु । आहार विगप्पा विणेयव्या ॥॥ साधूको रात्रीके अन्तमें नवकार सहि भवचरिम (अनशन करते समय ) चोविहार, उपहास, आंबिल, प्रत्याख्यान, तिविहार, कल्पता है । अन्य सब प्रत्याख्यान, दुविहार, तिविहार और चोविहार कल्पते हैं । इस प्रकार प्रत्याख्यानके भेद जानना । नीवी तथा आंविलमें कल्पनीय, अकल्पनीय (अमुक खपे अमुक न खपे) का विचार अपनी अपनी सामाचारी, सिद्धांत, भाष्य, चूणि नियुक्ति, वृत्ति, प्रकरण वगैरहसे समझ लेना । एवं सिद्धांतके अनुसार या प्रत्याख्यान भाष्यसे अनाभोग (भूलसे मुखमें पडे हुये) सहस्सागारेणं
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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