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________________ श्राद्धविधि प्रकरण जाणता जे विरया। ते दुक्कर कारए वंदे ॥३॥ - फूल फल के रस को, मांस मदिरा के स्वाद को, तथा स्त्रीसेवन क्रिया को, जानता हुआ जो वैरागी हुवा ऐसे दुष्कर कारक को वंदन करता हूं। . सचित्त वस्तुओं में भी नागरवेल के पान दुःस्त्याज्य हैं, अन्य सब सचित्तको अवित्त किया हो तथापि उसका स्वाद लिया जा सकता है तथा आमको स्वाद भी सुकाने पर भी ले सकते हैं। परन्तु नागरवेल के पान निरंतर पानीमें ही पडे रहने से लील फूल कुथु आदिक की बहुत ही विराधना होती है इसलिये पाप से भय रखने वाले मनुष्यों को रात्रि के समय पान सर्वथा न खाना चाहिये। कदाचित किसीको उपयोग में लेने की जरूरत हो तो उसे प्रथम सेही दिनमें शुद्ध कर रखना चाहिये, परन्तु शुद्ध किये बिना प्रयोग में न लेना। पान कामदेवको उत्पन्न होने के लिये एक अंगरूप होनेसे और उसके प्रत्येक पत्र में असंख्य जीवकी विराधना होनेसे वह ब्रह्मचारियों को तो सचमुच ही त्याग ने लायक है। कहा है कि, जं भणिय पज्जत्तग। निस्साएवुक्कमंतपज्जत्ता ॥ जथ्थेगो पज्जतो। तथ्य असंखा अप्पज्जता ॥३॥ _ 'जो इस तरह कहा है कि, पर्याप्ति के निश्राय में ( साथ ही ) अपर्याप्ता उत्पन्न होते हैं सो भी जहां अनेक पर्याप्त उपजे वहां असंख्यात् अप्राप्त होते हैं ।" जब बाहर एकेन्द्रियमें ऐसा कहा है एवं सूक्ष्म ईन्द्रिय में भी ऐसा ही समझना; ऐसा आचारांग प्रमुख की बृत्ति में कहा है। इस प्रकार एक पत्रादिक से असंख्य जीव की विराधना होती है, इतना ही नहीं परन्तु उस पानके आश्रित जलमें नील फुलका संभव होनेसे अनंत जीवका विघात भो हो सकता है। क्योंकि, जल, लवणादिक असंख्य जीवात्मक ही है यदि उनमें शैवाल आदि हों तो अनंत जीवात्मक भी समझना ; इसलिये सिद्धान्त में कहा है कि, एगमि उदग बिंदुभि । जे जीवा जिणवरेहिं पण्णचा ॥ ते जह सरिसव मित्ता । जंबुदीवे न मायति ॥ १ ॥ ... पानीके एक विंदुमें तीर्थंकरने जितने जीव फरमाये हैं यदि वे जीव सरसव प्रमाण शरीर धारण करें तो सारे जंबुद्वीपमें नहीं समा सकते। अद्दामलग पमाणे । पुढबीकाए हवंति जे जीवा ॥ ते पारवय मिचा । जंबुदीवे न मायति ॥२॥ आमलक फल प्रमाण पृथ्वी कायके एक खंडमें जितने जीव होते हैं, वे कदाचित कबूतरके समान कल्पित किये जायें तो सारे जंबूद्वीपमें भी नहीं समा सकते। पृथ्वीकाय और अपकायमें ऐसे सूक्ष्म जीव रहे हैं इसलिये पान खानेसे असंख्यात जीवोंकी विराधना होती है। इसलिये विवेकी पुरुषको पान सर्वथा त्याग करने योग्य है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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