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________________ नत्वा तत्र महोत्सवान्नवनवान् कृत्वा च दत्वा धनं, भूत्वा सङ्घपतिः कृती निजगृहं चागात्ससङ्घोऽनघः ॥ ५८ ॥ अर्थ-मेरि आदि उग्र और मनोहर वाजित्रोंके शब्दसे आकाशको गुञ्जित करते हुए, चपलतासे चलते हुए बड़े बड़े अश्वोंके चरणोंके खुरोंके आघातसे पृथ्वीको कम्पायमान करते हुएं, सुन्दरः वर्णवाले स्वर्णके दण्ड और. कलशयुक्त ऊंचे जिनालयोंसे शोभाको धारण करते और अपने अति उज्ज्वल यशसे पृथ्वीको उज्ज्वल करते इल देवराज शेठने भी शत्रुक्षय गिरिपर रहनेवाले, पापको नाश करनेवाले और प्रकाशवान श्रीऋषभदेव प्रभुको और रैवताचल (गिरनार ) पर रहनेवाले उसीप्रकारके श्री नेमिनाथ प्रभुको नमस्कार कर, उसके पश्चात् नये नये अनेकों उत्सवोंको करके, पुष्कल धनका दान देकर और सचमुच संघात होकर सम्पूर्ण निर्दोष संघको साथ लेकर पिछा अपने घरको आया । श्रीगच्छेन्द्रगिरा सुधारसकिरा शिष्योत्करैः संयुता, गर्षाखर्वकुवादिसिन्धुरघटावित्रासपश्चाननाः । पूर्णेन्दुप्रतिमानना घनजनाहादप्रकर्षप्रदाः, श्रीमन्तो मुनिसुन्राहगुरवः क्षोणौ विहारं व्यधुः ॥ ५९ ॥ अर्थ-फिर गर्वसे भरपूर ऐसे बड़े कुवादिरूप गजेन्द्रोंकी घटाको त्रासित करनेके लिये केशरीसिहके समान, पूर्णचन्द्र समान मुख. वाले और अनेकों लोगोंको उत्कृष्ट प्रानन्द देनेवाले उन श्रीमान् मनिसुन्दर गुरुने अमृतरसको टपकानेवाली श्री गच्छपति(सोमसुन्दरसूरि )की श्राशासे शिष्योंके समूह सहित उस स्थानसे अन्यत्र विहार किया । इस अदभुत रोति द्वारा इस ग्रन्थके कर्ता श्रीमुनिसुन्दरसूरिके आचार्यपद्का अभिषेक किया गया । इस हकीकतके पढ़नेसे अत्यन्त सानंदाश्चये उत्पन्न होता है। गच्छाधिपति सोमसुन्दरसूरिका स्वर्गगमन सम्वत् १४९९ में होना धर्मसागर उपाध्याय अपनी पट्टावलीमें लिखते हैं । इस समय सर्व आचार्योमें श्रेष्ठ मुनिसुन्दरसूरि गच्छके आधिपति हुए । उनका स्वर्गवास सम्बत् १५०३ में हुआ। जब वे ६७ वर्षके हुए तब उन्होंने स्वर्गवास किया । उन्होंने ६० वर्ष दीक्षापर्यायका पालन किया; २५ वर्ष आचार्यरूप में प्रसिद्ध हुए
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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