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________________ वातोमिवेलच्छुचिकेतनानि, निकेतनानि व्यवहारिनेतुः । बभासिरे तस्य गुणान्वितस्य, श्रद्धोज्वलानीव लसन्मनांसि ॥४४॥ अर्थ-पवनकी तरंगोसे जब शेठके मन्दिरोकी ध्वजा फरफराती थी तब वे मन्दिरों ऐसे शौभायमान होते थे मानो वे उस गुणवान् शैठके श्रद्धासे उज्ज्वल हुए हुए मन हो ऐसे शोभते थे। तदा च सुत्रामपुरस्य शोभा शुभां बिभर्तिस्म पुरं तदुच्चैः । पदे पदे यत्प्रमदप्रदात्री निरीक्ष्यतेऽखर्वसुपर्वराजिः ॥ ४५ ॥ अर्थ-उस समयकी उस नगरकी शोभा अमरावतीकी उत्तम शोभाके सदृश थी, क्योंकि ठौरठौर पर देवताओंकी श्रेणिये हर्ष , उत्पन्न करनेवाली दृष्टिगोचर हो रही थी; अर्थात् मनुष्योंकी पंक्तिके समान शोभित थी। (सुपर्व अर्थात् देवतागण अथवा पर्वोत्सव, यह शब्द श्लेष है जिससे अत्यन्त सुन्दर अर्थचमत्कृति पैदा करता है)। सर्वाङ्गचार्वाभरणाभिरामा, रामाः सकामाः प्रदुस्तदानीम् । "न केवलं सद्धवलानि सर्व, श्रोतृश्रुतीनामपि च प्रमोदम् ॥ ४६॥ अर्थ-सम्पूर्ण शरीपर पहिने हुए रमणीय आकर्षक आभूषणोंसे सुन्दर दिखाइ देनेवाली सकाम रामायें उस समय केवल धवल वस्त्रादिसे नेत्रोंको आनन्दित करती हो इतना ही नहीं अपितु वे अपने धवलमंगलादिसे श्रोताओंकी श्रवणेन्द्रियको भी तृप्त करती थीं। महोत्सवेषु प्रथितेषु तेषु, समन्ततः सन्ततमद्भुतेषु । .. सोत्कर्षहर्षेण पुरात् पुराणः, शोकास्तदानीं निरकासि सद्यः ॥४७॥ अर्थ-इसप्रकार वे अद्भुत महोत्सव जब चारों ओर हर्षके उत्कर्षसे हो रहे थे तब पुराने जुने शोकको शीघ्र ही इस नगरसे देश निकाल मिल चुका था । मुहूर्तघोऽथ रमासनाथ, युगादिनोथस्य पृथूञ्चचैत्ये । अमण्डि नन्दिर्गुरुभिस्तदानी-मुर्त्यां च गुा स्वयशः समृद्धिः ॥४८ अर्थ-मुहूर्तके दिवसके आने पर शोभायमान भी प्रादिनाथके ऊँचे और विशाल चैत्यमें गुरुने बड़ी पृथ्वीपर यशकी समृद्धिरूप नन्दी बनाई । ( यह नन्दी चतुर्मुख जिन स्थापनारूप है और दीक्षाके अवसरपर समवसरणकी जो रचना की जाती है यह वही है। इसके समक्षमें सब क्रियायें होती है)। महामहोघे प्रसरत्यनल्पे, माङ्गल्यजल्पेऽखिलबन्दिनां च । श्रीवाचकानां वरसूरिमन्त्रं, प्रदान्मुदा श्रीतपगच्छनाथः ॥ १९ ॥
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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