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________________ ६५२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ षोडश हैं । इसप्रकार समताभाव जब प्राप्त होता है तब फिर निःसंगवृत्ति प्राप्त होनेका मार्ग मिलता है । पौद्गलिक सर्व वस्तुयें और भाव अर्थात् घर, सम्पत्ति, पलंग आदि पदार्थ और कषायादि भावोंसे दूर रहना, उनका सम्बन्ध छोड़ना यह नि:संगता कहलाती है । इस बातको लक्ष्यमें रख कर इसे साध्यबिन्दु बनाना चाहिये। अब सुखका मूल क्या है और दुःखका मूल क्या है ? यह चन्द शब्दोमें बतलाया जाता है । सर्व जीवोंपर समभाव, सर्व वस्तुओंपर समभाव हो, राजा या रंकपर, धनवान या निर्धनपर, अथवा इसप्रकारके विरोध बतलानेवाले दो शब्दोंसे प्रदर्शित किसी भी व्यक्तियुगलपर तथा कोई भी पदार्थयुगलपर निश्चित आकर्षण या दूरी गमन न हो यह समता है और यह ही सर्व सुखोंका मूल है । एक तो समता रखनेवाले पर दुःख नहीं पड़ता है और दूसरा उसे दुःख दुःख रूप नहीं लगता है । इसप्रकार समता रखनेवाला प्राणी दोनों प्रकारके संयोगोमें आत्महित साध सकता है । दूसरी ओर देखा जाय तो सब दुःखोंका कारण ममता है । यह घर मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह पुत्र मेरा है इस मेरेपनसे ही दुःख होता है। अपने आपको साक्षीभाव माननेवाले वीर धुरंधर घरको धर्मशाला समझते हैं और परिवारको मेले तुल्य गिनते हैं। यह स्पष्ट है कि ममतासे ही दुःख होता है । इसको शास्त्रकार मोहजन्य बतलाते हैं और मोहको सब कर्मोमें शास्त्रकार राजाका पद देते हैं। सर्व कर्मों में उसकी शक्ति भी अधिक होती है और स्थिति भी अधिक होती है । इस मोहराजाको वशमें करनेके लिये धर्मबोधकर मंत्री जैसे सत्यवक्ता महात्माओंके संगकी बहुत आवश्यकता है । इस संगतिसे संसारस्थिति समझमें आ जाती है। जिससे उसके
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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