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________________ अधिकार ] शुभवृत्तिशिक्षोपदेशः [६४५ भावश्यक क्रियाकी आवश्यकता प्रथम ही बतलाई गई है और वह वर्तमानयुगके लिये बड़े कामकी है । अप्रशस्तवृत्ति बढ़ती जाती है और धर्म साधन अल्प होते जाते हैं, इसलिये सदैव आवश्यक क्रिया अवश्य करनी चाहिये। जैसे सदैव पत्रिका ( News-paper ) पढ़नेवालेको पांच दिन पत्रिका न मीले तो दिशा शून्यसा जान पड़ती है, इसीप्रकार आवश्यक क्रियामें रटण होजाना चाहिये । तपश्चर्या भी इतनी ही उपयोगी है । जमाना जब पापबन्धनके अनेक कार्य सीखता है तब छोड़नेके ये प्रबल साधन मन्द होते जाते हैं यह खेद करने योग्य है । ज्ञानाभ्यासका भी इसी विषयमें समावेश होता है यह विशेषतया ध्यानमें रक्खे । इसके पश्चात् साधुको अनिश्त विहार करनेका उपदेश कीया गया है । विहारके विषय के सम्बन्धमें श्रावकोंको भी वर्षके कुछ दिन जाती भलाईके लीये अर्पण कर धार्मिक विषयपर विवेचन-भाषण करना, ध्यान देना चाहिये यह उपलपणसे समझ लेना चाहिये । आत्मनिरीक्षणकी सूचना तो बहुत ही उपयोगी है। इससे अपने सब कार्योंपर अधिकार जमता है और कोई भी कार्य बिना विचारे नहीं होता है, अथवा हुआ हो तो भी भविष्यमें न होनेके लिये निश्चय करनेका प्रसंग प्राप्त होता है । अठारह पापस्थानोंके लिये यदि प्रतिदिन आत्मनिरीक्षण हो तो अपूर्व लाभ होना निश्चय ही है । इस शुभ प्रवृत्तिका मुख्य उद्देश मन, वचन और कायाको शुभ रास्ते में प्रवृत्त करनेका प्रयास करना ही है। और इस हेतुपर भी ध्यान अवश्य खींचा गया है। जबतक मनमें विचार भिन्न, वचन भिन्न, और वर्तन तीसरे ही प्रकारका हो तबतक सब व्यर्थ है । त्रिपुटीको तीन रास्तेपर नहीं चलाना चाहिये । इन तीनोमें भी मनको
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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